Sunday, July 28, 2019

राष्ट्र को ख़तरा हमारे प्रश्न से है !





राष्ट्र कभी नहीं मरता।
राष्ट्र की सीमाएं/ परिभाषाएं
जवान होती चलती हैं।
बचा रहता है गौरव-गान 
घृणित से घृणित समय में भी
वमन के बाद मुँह में बचे कसैले स्वाद सा।

जब राष्ट्र की सीमा पर सैनिक
ख़र्च किये जा रहे होते हैं 
उबटन की तरह
और निखरकर चमकने लगती हैं
सत्ता-लोलुप भेड़ियों की महत्वाकांक्षाएं,
राष्ट्र को तब ख़तरा नहीं होता।

जब राष्ट्र की सीमा के भीतर
ज़िबह हो रहे होते हैं
किसान, मज़दूर, आदिवासी, नौजवान,
और हम जैसे लोग
अपनी-अपनी ज़िंदगी की लंगोट बचाये
सवाल तक नहीं करते,
राष्ट्र तब ख़तरे में नहीं होता।

हाँ तब भी 
जब कश्मीर से लेकर बंगाल तक
मुम्बई से लेकर दिल्ली तक
विस्थापितों की भीड़
मारी-मारी फिरती है
अपना टीन-टप्पर उठाये
और उन्हें एक घर तक नसीब नहीं होता,
राष्ट्र बिल्कुल भी ख़तरे में नहीं होता
कि बाढ़, सूखा, बेरोज़गारी 
और आतंक से उपजा विस्थापन
नेताओं की संसदीय वासना-पूर्ति में
किसी शक्तिवर्धक कैप्सूल से ज़्यादा काम आता है।

चाहे किसी जानवर की छोड़ी गयी साँस से
पड़ रहे हों राष्ट्र के बदन पर फफोले,
धर्म की धौंकनी और इमारतें 
लीलती जा रही हों भाईचारा
इतिहास-बोध और इंसान तक,
जब जाति के नाबदान से 
बाहर आने की छटपटाहट पर 
पीटी जा रही हों तालियाँ अश्लीलता से,
तब भी ख़तरे से बाहर
निश्चिंत होता है राष्ट्र।

सत्ता और उसके प्रतिष्ठानों पर उठाए जा रहे प्रश्न
जब सीने पर गोलियां खा रहे हों
या कायर बंदूकें दाग रही हों गोलियां
साहसी प्रश्नों के पीठ पर 
और संगठित प्रश्नों को
सामूहिक रूप से घोषित किया जा रहा हो देशद्रोही,
राष्ट्र तब भी सुरक्षित ही तो होता है।

भले ही सीमांतों से लेकर राजधानी तक
नोंची जा रही हों राष्ट्र भर में स्त्रियां,
वृद्धाएं, किशोरियां
और बलात्कार के सामूहिक उत्सवों के दौर में
नवजात बच्चियों तक को 
मान लिया गया हो 
पुरुष-लिंग के अनुपात का एक मांस-पिंड !
ऐसे घृणित, वहशी, अमानुषिक समय में भी 
राष्ट्र ज़िन्दा रहता है,
शर्म से मरता नहीं।
और गौरव-गान उसका
अबाध जारी रहता है,
छद्म राष्ट्रभक्तों के समवेत 
घाघ मधुर स्वर में।

बिल्कुल !
हम सब परिवार वाले हैं !
अपने-अपने महान धर्म के 
अपनी-अपनी जात वाले हैं।
हमारी भी रोज़ी-रोटी है,
माता-पिता हैं,
बीवी है-बेटी है !
कैसे कह दें
कि हर अमानुषिक घटना में
थोड़ा-थोड़ा रोज़ ही मरता है राष्ट्र
और वो कुमकुम नहीं है,
जो कि भारत माता के 
भाल से बहता हुआ
कर रहा है देह सारी गेरुआ,
रक्त है !
बह रहा जो अनगिनत घावों से होकर।

कैसे कह दें, राष्ट्र के नासूर सारे
बन रहे मंत्री, मुहाफ़िज़ और महाजन,
वाइज़ औ पंडों की सारी टोलियां
कर रहीं गुणगान उनका ही निरंतर।
देखना भी जुर्म है उनकी तरफ़ अब
औ प्रश्न करना देशद्रोह की निशानी ! 

सो रक्तरंजित राष्ट्र को यूँ देखकर भी
आइये हम चुप रहें !
नेपथ्य में ख़ामोश बैठें !
या कि गाएं राष्ट्र-गीत, राष्ट्र-गान
अपनी लिजलिजी आवाज़ में,
और संग हो ध्वज-प्रणाम !

शेष सबकुछ है चकाचक
बस राष्ट्र को ख़तरा हमारे प्रश्न से है।

- आशुतोष चन्दन 
  

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