Friday, May 8, 2020

दो नॉनवेजिटेरियंस की वार्ता।*



- 'जिसका हृदय उतना मलिन, जितना कि शीर्ष     वलक्ष है'

- ये किसने लिखा ?

- ये दिनकर ने लिखा था 'कुरुक्षेत्र' में।

- माने ?

- माने, भीतर भरा कचरा, ऊपर बाबा संत !

- ई कौन बोलिस ?

- हम बोले बे !

- अच्छा।

- साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है।

- भक बे! अइसा थोड़े ही होता है ?

- हम न बोले बे, प्रेमचंद बोले थे ये।

- हैं ? सच में? मज़ाक न करो मे !😲

- नहीं, सच में वही बोले थे।

- अच्छा, तब्बे अब के साहित्यकरवा उहे मशाल लेके आपस में लगाए - बुझाए रहते हैं।

- जाने दो बे। उनका मन।

- काहें जाने दें बे? पढ़ते-लिखते-कलम पकड़ते ही मार चारों ओर से कोंचने लगते हैं सब, पॉलिटिकल करेक्टनेस! पॉलिटिकल करेक्टनेस !
जेंडर सेंसटिविटी ! जेंडर इक्वलिटी ! अपनी बारी सब सन्नाटा काट लेते हैं? ज़ोर लगा के सुरुक लेते हैं ! सब नीति-नियम खाली नये लोगों के लिए है ?

- अबे तुम तो सेंटी हो गये बे!😢

- यार जिउ आजिज आ गया है इनकी दुर-दुर बिल-बिल से। पहली बार थोड़े ही है इनका। भूल गए पिछली बार का ?

- जाने दो यार।

- क्या जाने दें बे ?

- नहीं तो का करोगे ?

- मतलब 🤔

- मतलब कर का लोगे ? हो कौन बे तुम ?

- 🙄

- कै ठो कहानी पब्लिश हुई है ? कितना उपन्यास लिख मारे हो? एक्को बेस्टसेलर ? कोई विमोचन-उमोचन ? पुरस्कार ? आलोचक हो? प्रोफ़ेसर हो कहीं पर? कहीं बकैती वग़ैरह के लिए पूछता है तुमको कोई ?

- 😶

- फ़ीता काटने के लिए ही सही ?

- हाँ एक बार।

- हैं ? कब ? 🤔

- अरे कुछ ख़ास आयोजन नहीं था। एक आदमी का जूते का फ़ीता फँस गया था, ऐन मंदिर के गेट पर। वहीं सिविल लाइंस वाले हनुमान मंदिर पर। तो जूता निकलने को एकदम तैयार नहीं और भाई साहब को करना था दर्शन। थोड़ी देर हुज्जत करते देख के हमारा दिल पसीज गया। पूछे- भाई साहब, काट दें ?
बोला - हाँ, भाई काट ही दीजिये। हम अपने पिट्ठू बैग से कैंची निकाल के काट दिये। माने पहली बार कोई आदमी कटवा के इतना ख़ुश था।

- अबे ये वाला फ़ीता नहीं, कहीं किसी       साहित्यिक मॉल वग़ैरह के उद्घाटन वाला फ़ीता ! और तुम मंदिर का करने गए थे? तुम तो जाते
  नहीं हो?

- न, वैसा कोई फ़ीता नहीं कटवाया कोई हमसे। और कोई फ़ीता-ऊता कटवाए, कहानी-उपन्यास पब्लिश हो तबै बोलें ? हम तो तुमसे कह रहे हैं अपने मन की। और मंदिर जाने वाली बात पुरानी है बे ! तब तक नास्तिक नहीं थे हम। बाकी अब भी बेसन वाला लड्डू, सूजी का घी में तर हलुआ मिल जाये तो मंदिर- गुरुद्वारे हर जगह जाएं।

- मस्जिद नहीं ?

- कर दिये अपने मुँह जैसी बात ! उहाँ ई प्रसाद नहीं मिलता है। बाकी रमजान भर ललकी सेंवई लाकर खाने का जो मज़ा है मत पूछो। कभी  शकील-शरद मिलें तो पूछना, चीनी डाल के
दूध-बिना दूध दूनो तरह से कितना मज़ा आता है ! अब तो उन दोनों का भी मोहल्ला बदल गया है।

- ई दो कौड़ी की आदमख़ोर पॉलटिक्स जो न कराये।

- हम्म यार।

- वैसे बात कहाँ से शुरू किये रहे तुम अउर आ गए सेंवई पर ?

-  अबे ई साहित्ययकवन की बात  कर के मुँह कड़वा हो गया था, इसलिये मन अपने-आप इधर ले आया। सायकॉलजी तो पढ़े हो तुुुमम बी.ए. में।

- हाहाहाहा ...सही है! अच्छा, जी हल्लुक हुआ तुम्हारा ?

- हाँ बे, अब ठीक है।

- सही है, ऐसे ही बतिया लिया करो। लॉकडाउन में कोरोना ध लेने का ख़तरा है नहीं तो चला जाता इलाहाबाद। गुरू जी भी मिल जाते और यार दोस्त भी। सबेरे दारागंज में जलेबी-आलूदम अउर संझा को सिविल लाइंस में कफ़ील भाई के यहाँ मुर्ग के शोले!

- अबे का याद दिला दिये बे! मन करने लगा। 🤢

- हाहा, चलो मिलते हैं जल्दी ही। बाकी खाली हिंदी साहित्य ही दुनिया नहीं है, बाकी भारतीय भाषा का साहित्य भी पढ़ो, देश के बाहर का
भी। तब दिखेगी वो मशाल जिसके बारे में प्रेमचंद बोल के गए थे।

- चलो अब हमको चाटो मत, जा रहे हैं हाफ़ फ्राई बनाने। 🙄

- आशुतोष चन्दन



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