मुझको जनता का हरकारा होना था,
कविता क़िस्से ग़ज़लें नाटक लिये-लिये
गाँव-शहर-क़स्बों-बस्ती में फिरना था।
नहीं, यही इक फ़न का रस्ता नहीं है कोई
पर ऐसा कर पाऊँ, मैंने सोचा था।
सोचा था दुनिया बदले या न बदले
कहीं मगर इक फूल खिला सकता हूँ मैं,
कहीं किसी बच्चे के भारी बस्ते में
हल्के से इक हाथ लगा सकता हूँ मैं,
राह बीच गर कोई थका हारा होगा
उस से दुःख-सुख पूछ-बता सकता हूँ मैं,
आँख बचाकर घात जहाँ पर लगती है,
चुपके से इक आँख बना सकता हूँ मैं,
जो सबके हिस्से की लड़ाई मान के अपनी लड़ते हैं
उनके क़िस्से-उनके गीत, बोल सुना सकता हूँ मैं।
सोचा था चाहे कुछ भी हो,
वक़्त मुक़ाबिल जैसा हो,
इतना तो कर पाऊँगा।
लेकिन बस इक दुःख ने मेरे
बरसों पहले
बखिया सारी खोल के रख दी।
सारी रफूग़री तुरपाई
टाँके और सिलाई बीच
चुटकी-चुटकी कर के रिसता जाता है क़िरदार मेरा।
ख़ुद में कितना बाक़ी हूँ अब
यही टटोला करता हूँ।
मैं,
जिसको गीतों-क़िस्सों संग बस्ती-बस्ती फिरना था।
मैं,
जिसको जनता का साथी और हरकारा होना था।
मैं
अपने कमरे में ख़ुद के भीतर बैठा सोच रहा हूँ
मेरे मैं की चारदीवारी मुझसे कितनी ऊँची है,
जिसके बाहर इक दुनिया है, जिसका इक टुकड़ा हूँ मैं
जहाँ से रिश्ता मेरे फ़न का, जहाँ पे मुझको होना था।
हाँ लेकिन कल इक पौधा
दीवारों से उग आया है
जिसने शगुन दिया है मुझको,
कोशिश जारी रखनी है,
सब कुछ हो सकता है अब भी,
सब कुछ,
जो भी मुमिकन है।
- आशुतोष चन्दन
4 comments:
मुमकिन है बहुत कुछ यह प्रकृति ने ही हमें सिखाया है। बस अपने आपको बिखरने से बचाना है।
सही कहा आपने ☺️👍✊
यह कुछ अलग फ्लेवर वाला है, बीच में कहीं टूट जाता है मैंने दो बार पढ़ा तब जाकर मुझे समझ आया कि क्यों टूटता है। इसे एक बार पढ़ना चाहूंगा मैं। इसका साउंड अलग है।
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