Saturday, October 2, 2021

कलाबत्तू जी – अलाबत्तू जी @ गांधी जयंती

 





(मंच पर खादी पहने सम्मानित लोग आ चुके हैं। अपनी-अपनी कुर्सियों में धंसे हुए, सभागार में आए हुए लोगों की संख्या गिन रहे हैं और उन अभागों के नसीब के बारे में सोच रहे हैं जो आज आज़ादी के अमृत महोत्सव में उनके श्रीमुख से होने वाली अमृत वर्षा से वंचित रह जायेंगे।

कलाबत्तू जी पोडियम पर आते हैं। माइक को फूंक मारकर चेक करते हैं। फिर मुख्य अतिथि आदि के स्वागत में वही निबन्ध पढ़ते हैं जो आप तकरीबन हर स्वागत -भाषण में सुनते आए होंगे। व्हाट्स एप पर महीनों से परिश्रमपूर्वक इकट्ठी की गई चार लाइन की चार-पांच कविताएं भी रह – रह कर उठती रहती हैं। उन सबका वर्णन यहां क्या ही करना ? उसे आपकी समझ और कल्पना पर छोड़ा जा रहा है। तमाम विशेषणों और आदि -इत्यादि के बाद….)

कलाबत्तू जी : अब हम हमारे मुख्य अतिथि माननीय गोडसे जी से आग्रह करेंगे कि वो महात्मा गांधी के चित्र पर माल्यार्पण करें और गांधी दर्शन पर अपने उद्गार व्यक्त करें। 

( गोडसे जी अपनी कुर्सी से उठते हैं। चार एक दिन के गांधीवादी लोग तुरंत उनकी तरफ़ लपकते हैं। चरणों में गोता लगाने ही वाले होते हैं कि उन्हें याद आ जाता है कि झुकना गांधी जी के चित्र के सामने तय हुआ था एक महीने से चली आ रही मीटिंग में। परंपरानुरूप चार सुंदर युवतियां मालाएं लेकर आती हैं और गोडसे जी गांधी जी के चित्र पर माल्यार्पण करते हैं। हाथ जोड़कर प्रणाम करने के लिए गांधी जी के चित्र के सामने झुकते हैं। कलाबत्तू जी अपनी भावनाएं दबा नहीं पाते और गदगद होकर बोल पड़ते हैं – “अहा ! यह ऐतिहासिक क्षण है!” आयोजकों समेत गोडसे जी कलाबत्तू जी को अजीब सी नज़र से देखते हैं। मानो कह रहे हों – “बार-बार इतिहास की बात करना ज़रूरी है? वो भी ऐसे मौक़े पर!” कलाबत्तू जी सकपका जाते हैं।  धीरे से पोडियम छोड़कर पीछे हट जाते हैं। गोडसे जी को दो अन्य सुंदर युवतियां रास्ता दिखाते हुए माइक तक ले आती हैं मानो ऐसा न करने पर गोडसे जी बियाबान में भटक जायेंगे। गोडसे जी पोडियम पर आते ही सरसरी निगाह से सभागार में उपस्थित लोगों की गिनती करने के बाद गांधी जी के चित्र की ओर देखकर पूरे मेलोड्रामैटिक अंदाज़ में भर्राए गले से  पहला शब्द बोलते हैं -  “बापू…”  फिर आधे मिनट का पॉज़ लेते हैं और सभागार तालियों से गूंज उठता है। कलाबत्तू जी समझ चुके हैं कि गोडसे जी ने मीटर पकड़ लिया है। मौक़ा देखकर कलाबत्तू जी धीरे से नेपथ्य में चले जाते हैं। )

(नेपथ्य में)

अलाबत्तू जी : आइए कलाबत्तू जी, बस गर्मागर्म समोसा निकाले ही हैं अभी। लीजिए। लेकिन एक बात बताइए, हर बार तो वो वाले अखंड गांधीवादी जी बुलाए जाते थे, इस बार क्यों नहीं बुलाए गए ?

कलाबत्तू जी :   वो क्या है न कि इस बार पिछली बार वाले गांधीवादी जी की कहीं और बुकिंग है। शहर  में एक और आयोजन है आज के ही दिन, स्वयंसेवक लोगों का, गांधी के स्यापे, सॉरी योगदान पर। तो वो इस बार वहां मुख्य अतिथि हैं। पिछले कुछ सालों से साहित्यकारों की वैचारिक आवाजाही से बहुत प्रेरित हैं वो। 

अलाबत्तू जी : देखिएगा अटक ही न जाएं कहीं वहीं। उनके भीतर का हठी गांधी मौक़ा देखकर कहीं वहीं कुटिया न बना ले। सुना है आजकल किताबें लिखने में भी योगदान दे रहे हैं, भारत के नए इतिहास की। 

कलाबत्तू जी : बताया तो साहित्यकारों से गंभीर रूप से पीड़ित, मेरा मतलब है प्रेरित हैं। जब तक बैक टू बैक सात - आठ किताबें नहीं आ जातीं, कलेजे को ठंडक नहीं मिलेगी। बाक़ी अटकना कैसा?....कितने साहित्यकारों - कलाकारों को देखा है कहीं अटकते हुए? अधिकतर फ़कीर आदमी हैं जी ! काम निकलते ही झोला उठाकर चल देंगे किसी और द्वार पर, अगले पांच साल के लिए। 

अलाबत्तू जी : अच्छा तब तो सही है। अच्छा चलिए, जल्दी से समोसा खतम कीजिए अपना। गोडसे जी का लेक्चर पूरा होने से पहले पहुंचना होगा न आपको उधर। अरे आराम से ! मुंह न जला लीजिएगा। तालू में गरम - गरम आलू सट जाएगा न, तो बोलने जाएंगे गोडसे, निकल जाएगा कुछ और! माने ड नहीं बोल पाएंगे न बिना तालू को जीभ से टच किए। 

कलाबत्तू जी : अरे आराम से खाने दीजिए न भाई। सारी तैयारी में ठीक से खाने - पीने का वक्त ही नही मिला दो दिन से। बाक़ी अभी गोडसे जी का अभिनंदन समारोह भी होना बाक़ी है। उस से पहले पहुंच जाऊंगा। दूसरे संचालक जी सम्हाल लेंगे तब तक। 

अलाबत्तू जी : अच्छा फिर ठीक है। बाकी आपको पता है कि न कि समोसा भारत का अपना नहीं है, बाहर से आया है ?

कलाबत्तू जी : हां - हां पता है। लेकिन जो यहां आ गया, वो यहीं का हो गया है। समझे! थोड़ी बहुत फेर बदल के साथ एकदम भारतीय। अब वेज बिरयानी को ही ले लीजिए…

अलाबत्तू जी : और मुसल...

कलाबत्तू जी :  भक साला!  खाने नहीं देंगे? 

अलाबत्तू जी : अच्छा भाई नाराज़ न होइए। आराम से  खाइए।

(दोनों साथ - साथ खाने लगते हैं।) 

अलाबत्तू जी : एक बात बताइए, वो आपकी माता जी के लिए ऑक्सीजन सिलेंडरवा कहां से मंगवाया था आपने कलाबत्तू जी ? तीसरी लहर आने से पहले पता कर के तैयार रहा जाय तो ठीक रहेगा न।  

कलाबत्तू जी : कहां मिल पाया था भाई ?... तीन दिन तक दौड़ भाग की, लेकिन कहीं नहीं मिला...

अलाबत्तू जी : अरे आपको भी ? आप तो....

( कलाबत्तू जी, अलाबत्तू जी की तरफ़ नहीं देखते। बिना जवाब दिए तेजी से उठते हैं, पानी के कंटेनर की ओर बढ़ते हैं। पानी पीते हैं। मुंह धोते हैं, देर तक। फिर सीधा मंच की ओर चले जाते हैं। शायद आलू चिपक गया है तालू में।

मंच और सभागार गोडसे जी की किसी बात पर तालियों से गूंज रहा है। बहुत से लोग खिल-खिलाकर हंस रहे हैं।

उधर नेपथ्य में अलाबत्तू जी से उनके हाथ में बाक़ी बचा समोसा खाया नहीं जा रहा। उन्हें समझ में आ गया है कि कलाबत्तू जी के तालू में कोई आलू नहीं चिपका था और ये भी कि मंच के कलाबत्तू जी और नेपथ्य के अलाबत्तू जी की हालत कमोबेश एक सी ही है। अलबत्ता बहुत से कलाबत्तुओं को पता नहीं है शायद।)


- आशुतोष चन्दन


Tuesday, February 9, 2021

वैलेंटाइन_वीक_पर_एक_ख़त



वैलेंटाइन वीक ! ❤️ ...जिन्हें इश्क़ से एलर्जी नहीं है, जिन्होंने इश्क़ को जिया है, जो इश्क़ जीना चाहते हैं...उनके लिए उनके अपने त्योहारों का एक हफ़्ता। जिसमें न जाने कितने दिल टूटेंगे, न जाने कितने दिल एक दूसरे का हाथ थामेंगे और न जाने कितने अपने रिश्ते पर पड़ी वक़्त की गर्द झाड़-पोंछ कर तरोताज़ा हो जाएंगे। पर इस सब के दौरान याद रखना होगा कि इश्क़ सुविधा या विलासिता नहीं है, एक ज़िम्मेदारी है। ज़िम्मेदारी इस बात की कि हमें पुरातनपंथी सोच वाले पंडो-कठमुल्लों को इश्क़ को गरियाने का कोई मौक़ा नहीं मुहैया कराना है, ज़िम्मेदारी इस बात की कि इश्क़ को दमघोंटू और ज़ंजीरों से लदे किसी कॉन्ट्रैक्ट में नहीं बदलने देना है.....ज़िम्मेदारी इस बात की कि हम सब को मिलकर ऐसा परिवेश गढ़ना है कि कहीं कोई मनोज और बबली , कहीं कोई अंकित, कहीं कोई प्रणय लिजलिजे जात-मज़हब के ख़ूनी ठेकेदारों के हाथों घेर कर मार न दिया जाए। अपने इश्क़ का ही नहीं, दूसरों के इश्क़ का भी सम्मान करना सीखना होगा। सबका साथ देना सीखना होगा....वरना सब ऐसे ही अकेलेपन में घेर कर मार दिए जायेंगे। कोई ज़रूरी नहीं की ख़ून के निशान दिखें ही, लाश बरामद हो या कोई ख़बर बने...बहुत से ज़िबह किये गए दिलों का, छूटते रिश्तों का और जीती-जागती ज़िन्दगियों के धीरे-धीरे रिस कर ख़त्म हो जाने का सबूत और गवाह सिर्फ़ वक़्त होता है...


और एक बात, इश्क़ जंग नहीं है और इश्क़ में सब जायज़ नहीं होता। सामने वाले की असहमति का सम्मान करने का बूता न हो तो इश्क़ आपका इलाक़ा नहीं। आप जनेऊ ही फेरिये, दाढी बढ़ाइये, परिवार जहां मुनाफ़ा वाला धंधा जोड़ दे वहीं शादी कर लीजिये और शुरुआती महीनों में फेसबुक और इंस्टाग्राम पर  'वर्ल्ड्स बेस्ट हबी' और 'वर्ल्ड्स बेस्ट वाइफ़' वाली तस्वीरें चेंपते रहिये। वही आनंदमय है आपके लिए।


वरना इश्क़ अगर आपको बेहतर इंसान नहीं बनाता, सामने वाले को इंसान होने की आज़ादी देने से डरता है तो मेरे दोस्त,  कहीं तो कुछ है जो यक़ीनन जायज़ नहीं। तलाश कीजिये उसे। ग़लतियाँ वक़्त रहते सुधारी जा सकती हैं। 


बहरहाल, इस पूरे वैलेंटाइन वीक में आपके सामने अगर किसी भी धर्म-जाति की, कोई भी सेना, दल, परिषद, संघ, सभा वग़ैरह का कोई कायरों का गिरोह किसी भी जोड़े को परेशान करे तो तुरंत आस-पास के दोस्तों को फोन करें, लोगों को जुटाएं...और भिड़ जाएं...कब तक कैरेक्टर रोल निभाते रहेंगे, असल जिंदगी में लीड रोल में आने के लिये किसी निर्माता-निर्देशक की ज़रूरत नहीं होती...आप ही होते हैं जो भी होते हैं।  अगर बचा सकें तो किसी अंकित, मनोज-बबली, प्रणय को बचा लीजिये ...वरना ...वरना क्या? बाद में ख़बर पढ़ के च्च-च्च करने वाले तो हैं ही हम-आप। 


आपका दोस्त

आशुतोष चन्दन