Monday, September 21, 2020

मैं मांस खाता हूँ।



 



मैं मांस खाता हूँ।

अक्सर शाकाहारी लोग पूछते हैं सवाल,

समझाते हैं

अपराधबोध की सीमा तक,

जो मुझे होता नहीं।


अलबत्ता किसी ने कभी नहीं बताया

कि आदमी को खा जाने वालों से सवाल पूछने में 

क्या मुश्किल पेश आती है ?


मान लिया गया है 

कि आदमख़ोर होने की पुष्टि लिए

आदमी की देह में धँसे मिलने चाहिए आरोपी के दाँत

और ख़ून चूसे बिना 

कोई नहीं चूस सकता किसी आदमी का ख़ून।

ख़ून के निशान ज़रुरी हैं

हत्यारे के हाथ पर

हत्या साबित करने के लिए

और न्याय की हत्या नहीं की जा सकती,

ऐसा मान लिया गया है।


कोई नहीं बताता 

कि जब खेत की लाश 

झूलती मिलती है पेड़ से

लोकतंत्र की चौहद्दी में 

तो पूँजीवाद की कौन सी अवस्था मानी जानी चाहिये ?

संभव है 

किसी विचारोत्तेजक सेमिनार की राह देखी जा रही हो।


जब किसी फैक्ट्री में 

पतंगे की तरह जल कर मर जाते हैं मज़दूर

तो जाति के प्रश्न को पहले उठाया जाय या वर्ग के?

कोई नहीं बताता।

बहस लंबी है

और अभी पर्याप्त लोग हैं लाइन में 

मर जाने को तैयार

कि अकेले मरने 

और परिवार समेत भूख से मर जाने में से

पहला विकल्प बेहतर दिखता है।


किसी ने नहीं समझाया

कि औरत के मांस या मन में से 

किसका शिकार करने पर नहीं होती हिंसा?

किसी अँधेरे कोने में

या सपनों की जगमग में 

कहाँ बेहतर लगती है घात ?

बेआवाज़

चुपचाप...


और पुरुष मन का आखेट ? 

ना !

प्रश्नमाला से बाहर का सवाल।


कोई नहीं बताता 

कि सपनों की हत्या को

कब शामिल माना जायेगा हिंसा में ?

अपराधबोध, 

संवेदनशीलता,

चिंता, समर्थन और विरोध

दरअसल 

सुविधा और स्वाद का भी मामला है,

कोई नहीं बताता।


- आशुतोष चन्दन

Friday, September 18, 2020

अफ़वाह



बेरोज़गारी एक अफ़वाह है। 

ठीक वैसे ही 

जैसे अफ़वाह है 

कि देश में लोकतंत्र, 

न्याय और अर्थव्यवस्था का हाल अच्छा नहीं है।

जबकि लहलहाते खेत में खड़े किसान

कृषि प्रधान देश पर निबंध पढ़ रहे हैं,

योजनाएं 

उनके दरवाज़े पर हाथ बाँधे खड़ी हैं,

मंत्री जी के साथ।


सड़कों, ऑफ़िसों, घरों

और संबंधों में सुरक्षित हैं

छह महीने की बच्ची से लेकर 

नब्बे साल तक की औरतें। 

ख़ुश हैं। 


बचपन 

सपनों की दुनिया सा

खिलखिलाता झूम रहा है।

ढाबों पर, ठेलों पर,

कारख़ानों, दुकानों पर

केवल अफ़वाहें हैं,

ध्यान ना दें उधर!

भविष्य 

आशान्वित है। 


शिक्षा अपने उद्देश्य के एकदम क़रीब है

और डिग्री के साथ ही चस्पा है

रोज़गार की गारंटी।

भ्रष्टाचार पिछले ज़माने की बात है।

घोटाले मिथ हैं।

वंशवाद 

हमारी चहारदीवारी के पार का मामला

और जातिवाद 

सरासर झूठ है। 


धर्म नफ़रत नहीं सिखाता

और दुनिया भर के धर्म-ध्वजाधारक

हाथों में फूल लिए फिरते हैं

जिसे मौक़ा आने पर उतार देते हैं

सामने वाले के सीने में

पूरी उदारता के साथ।

सहिष्णु होते हैं। 


अमीर-ग़रीब के बीच 

कहीं कोई खाई नहीं,

सब अपनी मेहनत के 

हिसाब से कमाते हैं।

(बस आपको पता नहीं,

लोग कितनी तिकड़म लगाते हैं

झुग्गियों में रहते हुए मर जाने के लिए।)


दुनिया में कर्म-फल मिलता है सबको ही।

सारे बलात्कारी, 

युद्ध के अपराधी सब,

सारे ही धनपशु,

घृणा के पुजारी सब

कर्म-फल भोगते हैं,

भोग कर ही जाते हैं।।


सबकुछ तो अच्छा है

दुनिया में, 

देश में !

बाक़ी अपराध सारे

आदमख़ोर युद्ध और 

शोषण के क़िस्से सब,

धर्मगत-जातिगत द्वेष और हत्याएं,

टूटते हुए सपने 

रोटी के, रोज़ी के,

सैकड़ों, हज़ार मील लोग भटकते हुए,

फंदों पर झूलते किसान-नौजवान सब

कोरी अफ़वाहें हैं।


ज़मीर का मर जाना केवल कहावत है,

ज़मीर के मरने से कोई नहीं मरता है,

लाखों करोड़ लोग दुनिया में ज़िंदा हैं,

ज़मीर अफ़वाह है ख़ुद अपने आप में।

अफ़वाह हैं सड़कों पर उतरे हुए लोग ये

मानवाधिकार पर चोट अफ़वाह है

संघर्ष अफ़वाह है, क्रान्तियाँ अफ़वाह हैं

अफ़वाह है कि दुनिया ये बदली जा सकती है

ऐसी अफ़वाहों पर ध्यान मत दीजिये।


सत्ता ही 

दुनिया में 

एक मात्र सत्य है।



- आशुतोष चन्दन

Monday, September 14, 2020

मेरी ज़ुबाँ में सब शामिल हैं





मेरी ज़ुबाँ में सब शामिल हैं, सबमें आता-जाता हूँ

सबसे होकर मेरा रस्ता, मुझ तक मुझको लाता है।


दुनिया भर में कभी किसी भाषा का अचार नहीं डाला जा सका है, न ही कलौंजी-कोफ़्ता वग़ैरह बनाया जा सका है। अरे सच में! कहीं देखा-खाया हो तो बताइए। भाषा का काम दरअसल दो लोगों के बीच अनगिनत शब्दों, ध्वनियों आदि से एक पुल बनाना है। लचीला सा। जैसा दो पहाड़ियों के बीच होता है न, वैसा। एक तरफ से दूसरी तरफ विचार आते-जाते हैं और पुल उनकी लय में डोलता रहता है। क्या हो अगर दोनों पहाड़ियों से सेनाएं दौड़ा दी जाएं ? भारी-भरकम धारदार हथियारों के साथ पैदल और घुड़सवार सैनिक दौड़ पड़ें दोनों ही ओर से ? गोला-बारूद लादे टैंक्स उतार दिये जाएं उन पुलों पर?  तो ? .....चरमराकर टूट जाएगा पुल। अपने लचीलेपन के बावज़ूद टूट जाएगा। फिर कभी कोई न जा सकेगा इधर से उधर। चाहकर भी। अपनी-अपनी चोटियों पर दोनों तरफ़ लोग फँस जाएंगे। हाँ जिन्हें आना-जाना ही नहीं कहीं, ठस्स बैठे रहना है या ज़्यादा से ज़्यादा फुदक लेना है अपने कुएँ में, उनके लिए तो उनका कुआँ ही भवसागर है। यूँ तो मेंढक का किसी अवतार कथा में ज़िक्र नहीं आता, लेकिन कूपमंडूक-शिरोमणि स्वयं को किसी अवतार से कम मानते होंगे, इसमें पर्याप्त संदेह है। मतलब यूँ समझिये कि एक कुएँ में पचास मेंढ़क हों तो कम से पैंतीस अवतार और बाक़ी पंद्रह भक्त। दै ! भक्त सुनते ही आप ऐसा मुँह क्यों बना लेते हैं भाई ? मैं साहित्यिक अवतारों और उनके भक्तों की बात कर रहा हूँ अभी। 

हाँ तो ये हुआ एक कुएँ का हाल। ऐसे कितने ही कुएँ और कितनी ही पहाड़ियाँ होंगी! जहाँ ठस्स अवतारों के बीच कितने ही ऐसे लोग होंगे जिन्हें जीवन, दुनिया, भाषा के नये और अनजान प्रदेशों में जाना पसंद होगा, संवाद पसंद होगा। दुनिया भर में भाषाएं ऐसे ही यायावरों की बदौलत बढ़ी और एक दूसरे से मिलती-जुलती रही हैं। मसलन मेरे इस पूरी चकल्लस का पहला वाक्य ही ले लीजिए। कोफ़्ता फ़ारसी शब्द है जो उर्दू से होता हुआ हमारी बोलचाल में शामिल हुआ है। कोफ़्ता का मतलब होता है कूटे-पीसे गए मांस की गेंद। यस!  योर दैट टेस्टी मीटबॉल इज़् कोफ़्ता बेसिकली, इन पर्शियन। जैसे बिरयानी, जिसका अर्थ होता है मांस के साथ पकाया गया अन्न, शाकाहारी लोगों की जमात में मांस हटाकर तरकारी डाल देने से वेज बिरयानी हो गया, वैसा ही कोफ़्ता के साथ भी हुआ। अब सब लोग फ़ारसी-उर्दू तो बोलते नहीं, लेकिन कोफ़्ता ज़रूर बोलते हैं, बिरयानी बोलते हैं, वो भी चटखारे ले-ले कर। आप सोच रहे होंगे भाषा की बात करता हुआ मैं कोफ़्ता और बिरयानी में क्यों रम गया? दरअसल खान-पान हमारी संस्कृति का हिस्सा है और भाषा का संस्कृति से बहुत गहरा और महत्त्वपूर्ण रिश्ता है। अब देखिए संस्कृति कोई सामान तो है नहीं कि एक संस्कृति का व्यक्ति दूसरी संस्कृति के व्यक्ति से मिलने पर अपनी जेब में हाथ डालता हो और अपनी पचास ग्राम संस्कृति  दूसरे की जेब या झोले जबरन डाल देता हो। जब दो अलग-अलग संस्कृतियों के व्यक्ति  संपर्क में आते है तो उनकी भाषा उनके खान-पान और रहन-सहन से होते हुए एक-दूसरे के दालान में दाख़िल होती है। धीरे-धीरे भाषा का अदृश्य पुल उन दोनों के बीच झूलने लगता है। न जाने कितने शब्द महासागरों, पर्वतों, रेगिस्तानों, नदियों, मैदानों की सीमाएं तोड़कर अनगिनत क़िस्से लिए एक-दूसरे से मिलते हैं। ऐसे घुल मिल जाते हैं जैसे हमेशा से यहीं रहे हों। कभी आपने सोचा है कि आपके कमरे में रखी 'कुर्सी' किस भाषा से आयी है आपकी ज़ुबान पर? या 'कमरा' ख़ुद ? नहीं न? और एक दिन अचानक कोई एक भाषा का नारा देकर हमारे हाथों में लाठी पकड़ा देता है। उसके नारे की थाप पर हम लाठी भाँजना शुरू कर देते हैं, बिना ये जाने कि भाषाएं लाठी के बल पर बहुत देर तक नहीं टिकतीं।

हम अगर अलग-अलग हिस्सा बाँट लेंगे, तो कोई कहीं नहीं जा पाएगा। न हिंदी में, न तेलुगु में, न गारो में, न डोगरी में, न मराठी में, न मलयालम में, न मैथिली में, न उर्दू में, न अहोमिया में, न कन्नड़ में, न उड़िया में, न पंजाबी, न हरियाणवी, न अँग्रेजी में, कहीं भी नहीं। और तो और भोजपुरी और बज्जिका में भी नहीं आ-जा पाएंगे !

आप सब लोग तो जानकार लोग हैं। ख़ुद जानते होंगे कि किसी भाषा/ बोली में फँसा हुआ आदमी, अपनी भाषा को भी फँसा देता है । फिर वो भाषा हो या पानी या कि रिश्ता, अटके हुए सभी एक न एक दिन सड़ाँध पैदा कर ही देते हैं।

तो आइये, अपनी-अपनी भाषा की गिरहें खोलें, साथ-साथ बतियाएं, बोलें, कि किसी भी भाषा/बोली का विकास परस्पर प्रतिस्पर्धा से नहीं, एक दूसरे को समृद्ध करने से होता है। प्रेम और हवस में अंतर तो होगा न ! ऐसा ही भाषा के मामले में भी है। आपका भाषा/बोली -प्रेम, भाषा/बोली के नफ़रती गिरोहबाज़ों के मुँह पर तमाचा होगा। दूसरी तरफ़ आपकी भाषाई हवस ख़ुद आपको भी उन दलालों की दुकान पर कब टाँग देगी, आपको भी पता नहीं चलेगा।

भाषा की चिंता करना लाज़मी है लेकिन तार्किक रूप से सोचते हुए। देखा जाय तो किसी भी भाषा की उन्नति उस भाषा को बोलने-बरतने वाले लोगों की उन्नति के साथ-साथ हुई है। इसी तरह संभव ही है। ग़ौर करने वाली बात ये है कि एक भाषा की उन्नति दूसरी भाषा या उस भाषा को बरतने वाले लोगों का रास्ता रोककर नहीं हो सकती। ऐसा करना मूर्खता की निशानी है। अब हम लोग मूर्ख तो है नहीं ! हैं जी ? कोई संदेह है क्या ? नहीं है भाई ! इसीलिए  ठस्स गौरव और हीनताबोध के इतर भाषाई सौहार्द पर ज़ोर देना होगा। सत्ता का अपना चरित्र होता है। वो भाषा और संस्कृति के प्रश्न को एकाधिकार के प्रश्न में बदल देती है। हिंदी को तमाम अन्य भारतीय भाषाओं और वैश्विक भाषाओं की चुनौती में नहीं, सहजीविता और सामंजस्य में बरतने की ज़रूरत है। सबसे महत्वपूर्ण बात कि हमें भाषा के सवाल को रोज़गार के सवाल से जोड़ने की क़वायद शुरू करनी पड़ेगी। हमें सरकारों से ये सवाल उठाना पड़ेगा कि हिंदी समेत इस देश की तमाम भाषाओं में राज-काज समेत सारे काम क्यों नहीं किये जाते ? अंग्रेजी का सम्पर्क भाषा के रूप में कोई विरोध नहीं है लेकिन औपनिवेशिक शासन की तरह उसका अन्य भाषा-भाषियों पर दबाव उचित नहीं है। शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को दोयम दर्ज़े का और उन भाषाओं को बोलने वालों को कमतर मानना बंद करना होगा। ख़ुद भी हिंदी या अपनी भाषा बोलते हुए सकुचाने की ज़रूरत नहीं है। और जैसा कि ऊपर कन्फ़र्म किया जा चुका है कि हम-आप मूर्ख नहीं हैं तो हम हिंदी वाले अपने ही देश की अन्य भाषाओं के साथ भी वैसा व्यवहार नहीं ही करते होंगे जैसा हम अपने लिए नहीं चाहते। है कि नहीं ? हैं जी ? संदेह है क्या ?


- आशुतोष चन्दन


Friday, September 11, 2020

चार दृश्य : मुक्तिबोध










मुक्तिबोध : पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

साहित्य, कला, संस्कृति के निष्पक्ष अलंबरदार :

हैं जी ? पॉलिटक्स ? वो क्यों ? माने पॉलिटक्स की ज़रूरत ही क्या है ? आई हेट पॉलिटक्स ! जो ग्रांट दिला दे उसकी जै-जै करना, किसी के नाटक, कविता-संग्रह, उपन्यास, किसी भी किताब की गलदश्रु भाव से समीक्षा लिखना, किसी मठाधीश की चरण-चम्पी करना, अपनी जात और धरम-प्रदेश का देखते ही खेमेबाज़ी करने लगना, मौक़े-बेमौक़े दाएं-बाएं होते हुए दुलकी चाल से चलते रहना पॉलिटक्स नहीं होती। मुझे इन सब में न फँसाइये, मेरा रास्ता बीच का है। 


(दृश्य दो)

मुक्तिबोध : पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

निष्पक्ष क्रांतिकारी : 

वही वही आप वाली मेरे प्रिय कवि! बस कभी-कभी पाठक पाने-बनाने के लिए  तमाम साहित्य सम्मेलनों में आवाजाही कर आता हूँ। जुग-जमाना ख़राब है न, सबसे बना कर चलना पड़ता है। आज जिस चैनल या अख़बार को गरियाते हैं, कल उसी में छपना भी होता है, उसके कार्यक्रम में ज्ञान उलीचने भी जाना पड़ता है...क्या कीजियेगा.. लेकिन पॉलिटक्स, माँ कसम आप वाली ही है ! 

(दृश्य तीन)

दूर कहीं 'अँधेरे में' कोई युवा विद्यार्थी बैठा हुआ तमाम मठ और गढ़ देखता, लिजलिजे लेकिन शातिर लोगों के पैंतरों के बीच अपनी अभिव्यक्ति का रास्ता तलाशता अपनी कसौटी चुन रहा है...हल्के- हल्के होठों से बुदबुदाते हुए...लेकिन मन में कहीं ज़ोर से...

पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?...पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

(दृश्य चार)

मंद-मधुर संगीत के बीच कुछ लोग शहतीरें छिल रहे हैं। कुछ निपुण कलाकार सलीबें बना रहे हैं। कविगण सलीबों पर सुंदर-सुंदर कविताएँ उकेर रहे हैं और रह-रह कर प्रकाशकों की ओर एक नज़र देख ले रहे हैं। प्रकाशक अनुमोदन में सिर हिलाने से पहले राजा के झुकाव का कोण याद कर रहे हैं।  कुछ कलात्मक अभिरुचियों वाले आम नागरिक इस महान दृश्य को इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक पर लगातार साझा कर रहे हैं। उदात्त भाव से लैस गुरु-गंभीर मल्टीपॉलिटकल शेड वाले कुछ रंगकर्मी उन बिखरी सलीबों से अपने नाटक के एस्थेटिक के लिए प्रेरणा ले रहे हैं। एक तरफ़ सलीबों की विशेषता और प्रासंगिकता पर ऑनलाइन सेमिनार आयोजित किये जा रहे हैं। बुलाये गए वक्ता गदगद और न बुलाये गए उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। किटकिटाहट की ध्वनियाँ अलबत्ता दोनों ही ओर से आ रही हैं।

चारों ओर सलीबें बिखरी पड़ी हैं....बहुत सी सलीबें। एक सधी हुई लय में अनगिनत सलीबें लगातार बनायी जा रहीं हैं कि एक अकेली सलीब हौसले और प्रतिबद्धता से भरे किसी हृदय का भार नहीं सम्हाल सकती। 

उन्हें भी पता है कि कुछ सवाल लहूलुहान होकर भी बार-बार उठ खड़े होते हैं, उनका जवाब मिलने तक...

मसलन...

 पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?


- आशुतोष चन्दन