मैं मांस खाता हूँ।
अक्सर शाकाहारी लोग पूछते हैं सवाल,
समझाते हैं
अपराधबोध की सीमा तक,
जो मुझे होता नहीं।
अलबत्ता किसी ने कभी नहीं बताया
कि आदमी को खा जाने वालों से सवाल पूछने में
क्या मुश्किल पेश आती है ?
मान लिया गया है
कि आदमख़ोर होने की पुष्टि लिए
आदमी की देह में धँसे मिलने चाहिए आरोपी के दाँत
और ख़ून चूसे बिना
कोई नहीं चूस सकता किसी आदमी का ख़ून।
ख़ून के निशान ज़रुरी हैं
हत्यारे के हाथ पर
हत्या साबित करने के लिए
और न्याय की हत्या नहीं की जा सकती,
ऐसा मान लिया गया है।
कोई नहीं बताता
कि जब खेत की लाश
झूलती मिलती है पेड़ से
लोकतंत्र की चौहद्दी में
तो पूँजीवाद की कौन सी अवस्था मानी जानी चाहिये ?
संभव है
किसी विचारोत्तेजक सेमिनार की राह देखी जा रही हो।
जब किसी फैक्ट्री में
पतंगे की तरह जल कर मर जाते हैं मज़दूर
तो जाति के प्रश्न को पहले उठाया जाय या वर्ग के?
कोई नहीं बताता।
बहस लंबी है
और अभी पर्याप्त लोग हैं लाइन में
मर जाने को तैयार
कि अकेले मरने
और परिवार समेत भूख से मर जाने में से
पहला विकल्प बेहतर दिखता है।
किसी ने नहीं समझाया
कि औरत के मांस या मन में से
किसका शिकार करने पर नहीं होती हिंसा?
किसी अँधेरे कोने में
या सपनों की जगमग में
कहाँ बेहतर लगती है घात ?
बेआवाज़
चुपचाप...
और पुरुष मन का आखेट ?
ना !
प्रश्नमाला से बाहर का सवाल।
कोई नहीं बताता
कि सपनों की हत्या को
कब शामिल माना जायेगा हिंसा में ?
अपराधबोध,
संवेदनशीलता,
चिंता, समर्थन और विरोध
दरअसल
सुविधा और स्वाद का भी मामला है,
कोई नहीं बताता।
- आशुतोष चन्दन
3 comments:
वाह! बहुत बढ़िया!
धन्यवाद नरेश भैया।
ठीक बात है...यह बहस लंबी है.
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