वक़्त की दरकार यही है
कि हम-आप अपनी आस्तीनें
काट कर फेंक दे!
इसलिए नहीं
कि किसी ने दिया है
आस्तीन धोने या इस्त्री करने में ज़्यादा समय लगने का तर्क!
न ही कपड़ा बचाने के लिए।
अगर आप अपनी आस्तीनें
झाड़ कर देख नहीं सकते,
अपनी लापरवाही या बेमन में
साँपों को, सपोलों को
बने रहने देते हैं वहीं
उनके अंडों-केंचुली समेत,
तो उसे काट कर फेंक दीजिए।
आप की आस्तीनें
आप के लिए ही नहीं,
दूसरों के लिए भी ख़तरनाक हो चली हैं।
वरना मोड़कर देखिये,
झाड़कर,
डुबोकर उबलते पानी में भी ।
क्या पता हमारी-आपकी आस्तीन में ही
उसकी सिलाई में,
महीन से महीन रेशे में
पल रहे हों वो साँप
जिन्हें मारने को हम आप लाठी भाँजते रहते हैं
बाहर।
धर्म और जाति के ज़हर भरे फन वाले
औरत को देह मान लपलपाती जीभ वाले,
पैसे के, रुतबे के,श्रेष्ठता के दंभ में
दूसरों को निगल-निगल बढ़ते-मुटाते जाते
चिकने सुनहले शातिर और घाघ साँप !
आशुतोष चन्दन
26 मई 2019
सही कहा
ReplyDeleteयह समय आत्ममंथन का है
धन्यवाद
DeleteVery well written!!
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