Friday, September 11, 2020

चार दृश्य : मुक्तिबोध










मुक्तिबोध : पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

साहित्य, कला, संस्कृति के निष्पक्ष अलंबरदार :

हैं जी ? पॉलिटक्स ? वो क्यों ? माने पॉलिटक्स की ज़रूरत ही क्या है ? आई हेट पॉलिटक्स ! जो ग्रांट दिला दे उसकी जै-जै करना, किसी के नाटक, कविता-संग्रह, उपन्यास, किसी भी किताब की गलदश्रु भाव से समीक्षा लिखना, किसी मठाधीश की चरण-चम्पी करना, अपनी जात और धरम-प्रदेश का देखते ही खेमेबाज़ी करने लगना, मौक़े-बेमौक़े दाएं-बाएं होते हुए दुलकी चाल से चलते रहना पॉलिटक्स नहीं होती। मुझे इन सब में न फँसाइये, मेरा रास्ता बीच का है। 


(दृश्य दो)

मुक्तिबोध : पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

निष्पक्ष क्रांतिकारी : 

वही वही आप वाली मेरे प्रिय कवि! बस कभी-कभी पाठक पाने-बनाने के लिए  तमाम साहित्य सम्मेलनों में आवाजाही कर आता हूँ। जुग-जमाना ख़राब है न, सबसे बना कर चलना पड़ता है। आज जिस चैनल या अख़बार को गरियाते हैं, कल उसी में छपना भी होता है, उसके कार्यक्रम में ज्ञान उलीचने भी जाना पड़ता है...क्या कीजियेगा.. लेकिन पॉलिटक्स, माँ कसम आप वाली ही है ! 

(दृश्य तीन)

दूर कहीं 'अँधेरे में' कोई युवा विद्यार्थी बैठा हुआ तमाम मठ और गढ़ देखता, लिजलिजे लेकिन शातिर लोगों के पैंतरों के बीच अपनी अभिव्यक्ति का रास्ता तलाशता अपनी कसौटी चुन रहा है...हल्के- हल्के होठों से बुदबुदाते हुए...लेकिन मन में कहीं ज़ोर से...

पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?...पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

(दृश्य चार)

मंद-मधुर संगीत के बीच कुछ लोग शहतीरें छिल रहे हैं। कुछ निपुण कलाकार सलीबें बना रहे हैं। कविगण सलीबों पर सुंदर-सुंदर कविताएँ उकेर रहे हैं और रह-रह कर प्रकाशकों की ओर एक नज़र देख ले रहे हैं। प्रकाशक अनुमोदन में सिर हिलाने से पहले राजा के झुकाव का कोण याद कर रहे हैं।  कुछ कलात्मक अभिरुचियों वाले आम नागरिक इस महान दृश्य को इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक पर लगातार साझा कर रहे हैं। उदात्त भाव से लैस गुरु-गंभीर मल्टीपॉलिटकल शेड वाले कुछ रंगकर्मी उन बिखरी सलीबों से अपने नाटक के एस्थेटिक के लिए प्रेरणा ले रहे हैं। एक तरफ़ सलीबों की विशेषता और प्रासंगिकता पर ऑनलाइन सेमिनार आयोजित किये जा रहे हैं। बुलाये गए वक्ता गदगद और न बुलाये गए उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। किटकिटाहट की ध्वनियाँ अलबत्ता दोनों ही ओर से आ रही हैं।

चारों ओर सलीबें बिखरी पड़ी हैं....बहुत सी सलीबें। एक सधी हुई लय में अनगिनत सलीबें लगातार बनायी जा रहीं हैं कि एक अकेली सलीब हौसले और प्रतिबद्धता से भरे किसी हृदय का भार नहीं सम्हाल सकती। 

उन्हें भी पता है कि कुछ सवाल लहूलुहान होकर भी बार-बार उठ खड़े होते हैं, उनका जवाब मिलने तक...

मसलन...

 पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?


- आशुतोष चन्दन

15 comments:

  1. बढ़िया है, प्यारे...मन का. बिना मांगे का मश्विरा यह है कि निरंतरता की कोशिश की जानी चाहिए. अशोक वाजपेयी के स्तंभ का नाम कभी-कभार है, मगर वह नियमित लिखते हैं..इससे भी प्रेरणा ली जा सकती है.
    इसे संवाद पर भी छापेंगे.

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    1. संवाद पर जगह पाना तो इन शब्दों के लिए बहुत सुखद और महत्त्वपूर्ण होगा सर। ❤️🙏

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  2. ❤️....पूरी कोशिश करूँगा सर कि अब निरंतरता आ ही जाय। ☺️🙏

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  3. वाह! अशुतोष भाई ,बहुत बढ़िया!

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    1. धन्यवाद नरेश भैया 😊.

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  4. 😍😍 बहुत बढ़िया भाई

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  5. बहुत उम्दा 🙌

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  6. You are an inspiration Ashu bhai. Please keep writing. ��

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    1. Thanks yaar..❤️...But credit goes to all of them Who are out there with a sensible and critical mind, working together to make this world better. I have words only. They are the real inspiration ❤️❤️❤️

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