Monday, September 14, 2020

मेरी ज़ुबाँ में सब शामिल हैं





मेरी ज़ुबाँ में सब शामिल हैं, सबमें आता-जाता हूँ

सबसे होकर मेरा रस्ता, मुझ तक मुझको लाता है।


दुनिया भर में कभी किसी भाषा का अचार नहीं डाला जा सका है, न ही कलौंजी-कोफ़्ता वग़ैरह बनाया जा सका है। अरे सच में! कहीं देखा-खाया हो तो बताइए। भाषा का काम दरअसल दो लोगों के बीच अनगिनत शब्दों, ध्वनियों आदि से एक पुल बनाना है। लचीला सा। जैसा दो पहाड़ियों के बीच होता है न, वैसा। एक तरफ से दूसरी तरफ विचार आते-जाते हैं और पुल उनकी लय में डोलता रहता है। क्या हो अगर दोनों पहाड़ियों से सेनाएं दौड़ा दी जाएं ? भारी-भरकम धारदार हथियारों के साथ पैदल और घुड़सवार सैनिक दौड़ पड़ें दोनों ही ओर से ? गोला-बारूद लादे टैंक्स उतार दिये जाएं उन पुलों पर?  तो ? .....चरमराकर टूट जाएगा पुल। अपने लचीलेपन के बावज़ूद टूट जाएगा। फिर कभी कोई न जा सकेगा इधर से उधर। चाहकर भी। अपनी-अपनी चोटियों पर दोनों तरफ़ लोग फँस जाएंगे। हाँ जिन्हें आना-जाना ही नहीं कहीं, ठस्स बैठे रहना है या ज़्यादा से ज़्यादा फुदक लेना है अपने कुएँ में, उनके लिए तो उनका कुआँ ही भवसागर है। यूँ तो मेंढक का किसी अवतार कथा में ज़िक्र नहीं आता, लेकिन कूपमंडूक-शिरोमणि स्वयं को किसी अवतार से कम मानते होंगे, इसमें पर्याप्त संदेह है। मतलब यूँ समझिये कि एक कुएँ में पचास मेंढ़क हों तो कम से पैंतीस अवतार और बाक़ी पंद्रह भक्त। दै ! भक्त सुनते ही आप ऐसा मुँह क्यों बना लेते हैं भाई ? मैं साहित्यिक अवतारों और उनके भक्तों की बात कर रहा हूँ अभी। 

हाँ तो ये हुआ एक कुएँ का हाल। ऐसे कितने ही कुएँ और कितनी ही पहाड़ियाँ होंगी! जहाँ ठस्स अवतारों के बीच कितने ही ऐसे लोग होंगे जिन्हें जीवन, दुनिया, भाषा के नये और अनजान प्रदेशों में जाना पसंद होगा, संवाद पसंद होगा। दुनिया भर में भाषाएं ऐसे ही यायावरों की बदौलत बढ़ी और एक दूसरे से मिलती-जुलती रही हैं। मसलन मेरे इस पूरी चकल्लस का पहला वाक्य ही ले लीजिए। कोफ़्ता फ़ारसी शब्द है जो उर्दू से होता हुआ हमारी बोलचाल में शामिल हुआ है। कोफ़्ता का मतलब होता है कूटे-पीसे गए मांस की गेंद। यस!  योर दैट टेस्टी मीटबॉल इज़् कोफ़्ता बेसिकली, इन पर्शियन। जैसे बिरयानी, जिसका अर्थ होता है मांस के साथ पकाया गया अन्न, शाकाहारी लोगों की जमात में मांस हटाकर तरकारी डाल देने से वेज बिरयानी हो गया, वैसा ही कोफ़्ता के साथ भी हुआ। अब सब लोग फ़ारसी-उर्दू तो बोलते नहीं, लेकिन कोफ़्ता ज़रूर बोलते हैं, बिरयानी बोलते हैं, वो भी चटखारे ले-ले कर। आप सोच रहे होंगे भाषा की बात करता हुआ मैं कोफ़्ता और बिरयानी में क्यों रम गया? दरअसल खान-पान हमारी संस्कृति का हिस्सा है और भाषा का संस्कृति से बहुत गहरा और महत्त्वपूर्ण रिश्ता है। अब देखिए संस्कृति कोई सामान तो है नहीं कि एक संस्कृति का व्यक्ति दूसरी संस्कृति के व्यक्ति से मिलने पर अपनी जेब में हाथ डालता हो और अपनी पचास ग्राम संस्कृति  दूसरे की जेब या झोले जबरन डाल देता हो। जब दो अलग-अलग संस्कृतियों के व्यक्ति  संपर्क में आते है तो उनकी भाषा उनके खान-पान और रहन-सहन से होते हुए एक-दूसरे के दालान में दाख़िल होती है। धीरे-धीरे भाषा का अदृश्य पुल उन दोनों के बीच झूलने लगता है। न जाने कितने शब्द महासागरों, पर्वतों, रेगिस्तानों, नदियों, मैदानों की सीमाएं तोड़कर अनगिनत क़िस्से लिए एक-दूसरे से मिलते हैं। ऐसे घुल मिल जाते हैं जैसे हमेशा से यहीं रहे हों। कभी आपने सोचा है कि आपके कमरे में रखी 'कुर्सी' किस भाषा से आयी है आपकी ज़ुबान पर? या 'कमरा' ख़ुद ? नहीं न? और एक दिन अचानक कोई एक भाषा का नारा देकर हमारे हाथों में लाठी पकड़ा देता है। उसके नारे की थाप पर हम लाठी भाँजना शुरू कर देते हैं, बिना ये जाने कि भाषाएं लाठी के बल पर बहुत देर तक नहीं टिकतीं।

हम अगर अलग-अलग हिस्सा बाँट लेंगे, तो कोई कहीं नहीं जा पाएगा। न हिंदी में, न तेलुगु में, न गारो में, न डोगरी में, न मराठी में, न मलयालम में, न मैथिली में, न उर्दू में, न अहोमिया में, न कन्नड़ में, न उड़िया में, न पंजाबी, न हरियाणवी, न अँग्रेजी में, कहीं भी नहीं। और तो और भोजपुरी और बज्जिका में भी नहीं आ-जा पाएंगे !

आप सब लोग तो जानकार लोग हैं। ख़ुद जानते होंगे कि किसी भाषा/ बोली में फँसा हुआ आदमी, अपनी भाषा को भी फँसा देता है । फिर वो भाषा हो या पानी या कि रिश्ता, अटके हुए सभी एक न एक दिन सड़ाँध पैदा कर ही देते हैं।

तो आइये, अपनी-अपनी भाषा की गिरहें खोलें, साथ-साथ बतियाएं, बोलें, कि किसी भी भाषा/बोली का विकास परस्पर प्रतिस्पर्धा से नहीं, एक दूसरे को समृद्ध करने से होता है। प्रेम और हवस में अंतर तो होगा न ! ऐसा ही भाषा के मामले में भी है। आपका भाषा/बोली -प्रेम, भाषा/बोली के नफ़रती गिरोहबाज़ों के मुँह पर तमाचा होगा। दूसरी तरफ़ आपकी भाषाई हवस ख़ुद आपको भी उन दलालों की दुकान पर कब टाँग देगी, आपको भी पता नहीं चलेगा।

भाषा की चिंता करना लाज़मी है लेकिन तार्किक रूप से सोचते हुए। देखा जाय तो किसी भी भाषा की उन्नति उस भाषा को बोलने-बरतने वाले लोगों की उन्नति के साथ-साथ हुई है। इसी तरह संभव ही है। ग़ौर करने वाली बात ये है कि एक भाषा की उन्नति दूसरी भाषा या उस भाषा को बरतने वाले लोगों का रास्ता रोककर नहीं हो सकती। ऐसा करना मूर्खता की निशानी है। अब हम लोग मूर्ख तो है नहीं ! हैं जी ? कोई संदेह है क्या ? नहीं है भाई ! इसीलिए  ठस्स गौरव और हीनताबोध के इतर भाषाई सौहार्द पर ज़ोर देना होगा। सत्ता का अपना चरित्र होता है। वो भाषा और संस्कृति के प्रश्न को एकाधिकार के प्रश्न में बदल देती है। हिंदी को तमाम अन्य भारतीय भाषाओं और वैश्विक भाषाओं की चुनौती में नहीं, सहजीविता और सामंजस्य में बरतने की ज़रूरत है। सबसे महत्वपूर्ण बात कि हमें भाषा के सवाल को रोज़गार के सवाल से जोड़ने की क़वायद शुरू करनी पड़ेगी। हमें सरकारों से ये सवाल उठाना पड़ेगा कि हिंदी समेत इस देश की तमाम भाषाओं में राज-काज समेत सारे काम क्यों नहीं किये जाते ? अंग्रेजी का सम्पर्क भाषा के रूप में कोई विरोध नहीं है लेकिन औपनिवेशिक शासन की तरह उसका अन्य भाषा-भाषियों पर दबाव उचित नहीं है। शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को दोयम दर्ज़े का और उन भाषाओं को बोलने वालों को कमतर मानना बंद करना होगा। ख़ुद भी हिंदी या अपनी भाषा बोलते हुए सकुचाने की ज़रूरत नहीं है। और जैसा कि ऊपर कन्फ़र्म किया जा चुका है कि हम-आप मूर्ख नहीं हैं तो हम हिंदी वाले अपने ही देश की अन्य भाषाओं के साथ भी वैसा व्यवहार नहीं ही करते होंगे जैसा हम अपने लिए नहीं चाहते। है कि नहीं ? हैं जी ? संदेह है क्या ?


- आशुतोष चन्दन


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