Monday, October 12, 2020

तत्त्वज्ञान उर्फ़ हर्फ़ूलाल पुराण - द्वितीय अध्याय


बस अभी पाँच मिनट पहले एक हादसा टाइप चीज़ हुई। मैं छत पर टहल रहा था कि तभी आसमान में एक उड़ती हुई चीज़ दिखी, इधर से उधर चक्कर मारते हुए। मैं मोबाइल कैमरा से ज़ूम करके देखने की कोशिश करने लगा। मुझे लगा वो चीज़ मेरी तरफ़ आ रही है। जब तक मैं कुछ और सोच पाता, वो चीज़ ठीक मेरे सामने आकर रुकी। मैं शॉक्ड था। सामने साक्षात् प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल ! "प्रभूऊऊऊ"...मेरे मुँह से अभी इतना ही निकला था कि प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल उवाच;

 - "चुप बे! पहले ये बताओ, ये तुम्हारी मुंडी के चारों ओर आभामंडल कैसा है? जैसे सीरियल में दिखाते हैं देवताओं-ऋषियों की मुंडी के चारों ओर ? सारा कंसन्ट्रेशन ख़राब कर दिया मेरा उधर ऊपर !"

मैंने भरसक विनम्र होकर कहा -" प्रभूऊऊऊ.....वो तो ...हें हें ..."

" हें हें नहीं, तुरंत बताओ , सीधे-सीधे। शाम हो रही है और हम टॉर्च-वार्च नहीं लाये हैं। काम रह जाएगा मेरा !" - प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल बीच में ही बोल पड़े। 

मैंने तुरंत उगल दिया - " तत्वज्ञान ! तत्त्वज्ञान मिल गया है मुझे।"

"तत्त्वज्ञान ?" प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल गॉट शॉक्ड! अगेन उवाच ;

- " पर तुम्हें कैसे ?...ख़ैर कौन सा?"

मैनें कहा - " यस प्रभूऊऊऊ  तत्त्वज्ञान ! तत्त्वज्ञान ये है कि इनवर्टेड कॉमा में " जवान होती लड़की और बुढ़ा रहे लड़के के जीवन में एक ही क्वालिटी की चरस बोई जाती है। शादी वाली। हाँ बुआई की विधि को लेकर विद्वानों में मतभेद हो सकता है!" इनवर्टेड कॉमा क्लोज़्ड। "

सन्निपात समझते हैं आप लोग? वैसा ही कुछ हो गया प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल को। मैं छींटा मारने के लिये पानी की टंकी का ढक्कन खोल ही रहा था कि प्रभूऊऊऊ बोल पड़े - " पानी रहने दो वत्स। अब तो नीट ही पीना ...'

सडेलनी ही रियलाइज़्ड हिज फ़ॉल्ट। 

प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल लगभग बिसूरते हुए उवाच - " पर मुझे क्यों नहीं हुआ ये तत्त्वज्ञान?"

मैंने कहा - " जी छोटा न करें प्रभूऊऊऊ। आप बाई डिफॉल्ट एलिजेबल नहीं है इसके लिए।"

"माने ?" - प्रभूऊऊऊ ने अपने उत्तरीय से अपनी बहती नाक पोंछकर सुबुकते हुए पूछा।

"आपके रिश्तेदार हैं?" - मैंने पूछा।

"भक बे ! हम अवतार हैं।"- प्रभूऊऊऊ ने त्वरित प्रतिक्रिया दी। 

मैंने कहा - " बस्स ! इसीलिये आप इस तत्त्वज्ञान से वंचित रह गए।"

सुनकर प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल हर्षित हुए। बाँछें खिल गयीं उनकी, माने जहाँ पर भी होती हों। बोले ;

" तब तो सही है रजा! बच गये। हमारी तो टीआरपी ही डूब जाती। अच्छा एक काम करो, मुझे टॉर्च दो ...मुझे टॉर्च दो ...मुझे टॉर्च दो !"

" ये तीन बार बोलना ज़रूरी था ? मैं तो एक ही बार में दे देता।"- मैंने सोचा।

ख़ैर मैंने लाकर टॉर्च दी। प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल उड़ने को हुए ही थे कि मैं पूछ पड़ा - " लेकिन आप ये चकरघिन्नी की तरह उड़ते क्यों फिर रहे थे प्रभूऊऊऊ ?"

" हवा से ऑक्सीजन 'शक' कर रहा था। डायरेक्ट ! बिना टरबाइन के। एक आध पाव चाहिए हो तो बोलना, कल दे देंगे ! " ऐसा बोलकर प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल सोंय से उड़ गए। 

मेरा मुँह खुला का खुला रह गया। अचानक एहसास हुआ, एक आदमी अट्ठारह-अट्ठारह घंटे मेहनत कर रहा है ऑक्सीजन 'शक' करने के लिए और मैं यहाँ मुँह खोल खड़ा हूँ। एक ग्राम भी कम हो गया उसके कोटे में तो कहीं मुझ से ही वसूलने न आ जाय! मैं तुरंत मुँह बंद करके छत से उतर आया।


आप कहेंगे इसमें हादसा वाली बात क्या है? मैं पूछता हूँ साइंस के लिए क्या ये हादसे से कम है ? 

( इति श्री हर्फ़ूलाल पुराण द्वितीयो अध्याय समाप्त:)

- आशुतोष चन्दन 


(प्रभूऊऊऊ हर्फ़ूलाल , 'हर्फ़ूलाल पुराण: प्रथम अध्याय' में अवतरित नाटकीय चरित्र है। किसी मृत या मिथकीय चरित्र से इसकी कोई समानता नहीं। जीवित से निकल आये तो ....अंटी बंटी संटी !)

'हर्फ़ूलाल पुराण: प्रथम अध्याय' की प्रस्तुति के दौरान बाएंं से मेघा तारा दत्त, यदुवंश प्रणय, विपिन कुमार, विवेेेक कुमार, आशुतोष चन्दन और हर्फ़ूलाल की भूमिका में अमर सिंह।
निर्देशन- आशुतोष चन्दन।
 जेएनयू ऑडिटोरियम, नई दिल्ली। 
फोटो : चंद्रिका। 

Thursday, October 8, 2020

शगुन

 


मुझको जनता का हरकारा होना था,

कविता क़िस्से ग़ज़लें नाटक लिये-लिये

गाँव-शहर-क़स्बों-बस्ती में फिरना था।

नहीं, यही इक फ़न का रस्ता नहीं है कोई

पर ऐसा कर पाऊँ, मैंने सोचा था।

सोचा था दुनिया बदले या न बदले

कहीं मगर इक फूल खिला सकता हूँ मैं,

कहीं किसी बच्चे के भारी बस्ते में

हल्के से इक हाथ लगा सकता हूँ मैं,

राह बीच गर कोई थका हारा होगा

उस से दुःख-सुख पूछ-बता सकता हूँ मैं,

आँख बचाकर घात जहाँ पर लगती है,

चुपके से इक आँख बना सकता हूँ मैं,

जो सबके हिस्से की लड़ाई मान के अपनी लड़ते हैं

उनके क़िस्से-उनके गीत, बोल सुना सकता हूँ मैं।


सोचा था चाहे कुछ भी हो, 

वक़्त मुक़ाबिल जैसा हो,

इतना तो कर पाऊँगा।

लेकिन बस इक दुःख ने मेरे

बरसों पहले 

बखिया सारी खोल के रख दी।

सारी रफूग़री तुरपाई 

टाँके और सिलाई बीच

चुटकी-चुटकी कर के रिसता जाता है क़िरदार मेरा।

ख़ुद में कितना बाक़ी हूँ अब 

यही टटोला करता हूँ।

मैं,

जिसको गीतों-क़िस्सों संग बस्ती-बस्ती फिरना था।

मैं,

जिसको जनता का साथी और हरकारा होना था।

मैं

अपने कमरे में ख़ुद के भीतर बैठा सोच रहा हूँ

मेरे मैं की चारदीवारी मुझसे कितनी ऊँची है,

जिसके बाहर इक दुनिया है, जिसका इक टुकड़ा हूँ मैं

जहाँ से रिश्ता मेरे फ़न का, जहाँ पे मुझको होना था। 


हाँ लेकिन कल इक पौधा 

दीवारों से उग आया है

जिसने शगुन दिया है मुझको,

कोशिश जारी रखनी है,

सब कुछ हो सकता है अब भी,

सब कुछ,

जो भी मुमिकन है।

- आशुतोष चन्दन

Monday, September 21, 2020

मैं मांस खाता हूँ।



 



मैं मांस खाता हूँ।

अक्सर शाकाहारी लोग पूछते हैं सवाल,

समझाते हैं

अपराधबोध की सीमा तक,

जो मुझे होता नहीं।


अलबत्ता किसी ने कभी नहीं बताया

कि आदमी को खा जाने वालों से सवाल पूछने में 

क्या मुश्किल पेश आती है ?


मान लिया गया है 

कि आदमख़ोर होने की पुष्टि लिए

आदमी की देह में धँसे मिलने चाहिए आरोपी के दाँत

और ख़ून चूसे बिना 

कोई नहीं चूस सकता किसी आदमी का ख़ून।

ख़ून के निशान ज़रुरी हैं

हत्यारे के हाथ पर

हत्या साबित करने के लिए

और न्याय की हत्या नहीं की जा सकती,

ऐसा मान लिया गया है।


कोई नहीं बताता 

कि जब खेत की लाश 

झूलती मिलती है पेड़ से

लोकतंत्र की चौहद्दी में 

तो पूँजीवाद की कौन सी अवस्था मानी जानी चाहिये ?

संभव है 

किसी विचारोत्तेजक सेमिनार की राह देखी जा रही हो।


जब किसी फैक्ट्री में 

पतंगे की तरह जल कर मर जाते हैं मज़दूर

तो जाति के प्रश्न को पहले उठाया जाय या वर्ग के?

कोई नहीं बताता।

बहस लंबी है

और अभी पर्याप्त लोग हैं लाइन में 

मर जाने को तैयार

कि अकेले मरने 

और परिवार समेत भूख से मर जाने में से

पहला विकल्प बेहतर दिखता है।


किसी ने नहीं समझाया

कि औरत के मांस या मन में से 

किसका शिकार करने पर नहीं होती हिंसा?

किसी अँधेरे कोने में

या सपनों की जगमग में 

कहाँ बेहतर लगती है घात ?

बेआवाज़

चुपचाप...


और पुरुष मन का आखेट ? 

ना !

प्रश्नमाला से बाहर का सवाल।


कोई नहीं बताता 

कि सपनों की हत्या को

कब शामिल माना जायेगा हिंसा में ?

अपराधबोध, 

संवेदनशीलता,

चिंता, समर्थन और विरोध

दरअसल 

सुविधा और स्वाद का भी मामला है,

कोई नहीं बताता।


- आशुतोष चन्दन

Friday, September 18, 2020

अफ़वाह



बेरोज़गारी एक अफ़वाह है। 

ठीक वैसे ही 

जैसे अफ़वाह है 

कि देश में लोकतंत्र, 

न्याय और अर्थव्यवस्था का हाल अच्छा नहीं है।

जबकि लहलहाते खेत में खड़े किसान

कृषि प्रधान देश पर निबंध पढ़ रहे हैं,

योजनाएं 

उनके दरवाज़े पर हाथ बाँधे खड़ी हैं,

मंत्री जी के साथ।


सड़कों, ऑफ़िसों, घरों

और संबंधों में सुरक्षित हैं

छह महीने की बच्ची से लेकर 

नब्बे साल तक की औरतें। 

ख़ुश हैं। 


बचपन 

सपनों की दुनिया सा

खिलखिलाता झूम रहा है।

ढाबों पर, ठेलों पर,

कारख़ानों, दुकानों पर

केवल अफ़वाहें हैं,

ध्यान ना दें उधर!

भविष्य 

आशान्वित है। 


शिक्षा अपने उद्देश्य के एकदम क़रीब है

और डिग्री के साथ ही चस्पा है

रोज़गार की गारंटी।

भ्रष्टाचार पिछले ज़माने की बात है।

घोटाले मिथ हैं।

वंशवाद 

हमारी चहारदीवारी के पार का मामला

और जातिवाद 

सरासर झूठ है। 


धर्म नफ़रत नहीं सिखाता

और दुनिया भर के धर्म-ध्वजाधारक

हाथों में फूल लिए फिरते हैं

जिसे मौक़ा आने पर उतार देते हैं

सामने वाले के सीने में

पूरी उदारता के साथ।

सहिष्णु होते हैं। 


अमीर-ग़रीब के बीच 

कहीं कोई खाई नहीं,

सब अपनी मेहनत के 

हिसाब से कमाते हैं।

(बस आपको पता नहीं,

लोग कितनी तिकड़म लगाते हैं

झुग्गियों में रहते हुए मर जाने के लिए।)


दुनिया में कर्म-फल मिलता है सबको ही।

सारे बलात्कारी, 

युद्ध के अपराधी सब,

सारे ही धनपशु,

घृणा के पुजारी सब

कर्म-फल भोगते हैं,

भोग कर ही जाते हैं।।


सबकुछ तो अच्छा है

दुनिया में, 

देश में !

बाक़ी अपराध सारे

आदमख़ोर युद्ध और 

शोषण के क़िस्से सब,

धर्मगत-जातिगत द्वेष और हत्याएं,

टूटते हुए सपने 

रोटी के, रोज़ी के,

सैकड़ों, हज़ार मील लोग भटकते हुए,

फंदों पर झूलते किसान-नौजवान सब

कोरी अफ़वाहें हैं।


ज़मीर का मर जाना केवल कहावत है,

ज़मीर के मरने से कोई नहीं मरता है,

लाखों करोड़ लोग दुनिया में ज़िंदा हैं,

ज़मीर अफ़वाह है ख़ुद अपने आप में।

अफ़वाह हैं सड़कों पर उतरे हुए लोग ये

मानवाधिकार पर चोट अफ़वाह है

संघर्ष अफ़वाह है, क्रान्तियाँ अफ़वाह हैं

अफ़वाह है कि दुनिया ये बदली जा सकती है

ऐसी अफ़वाहों पर ध्यान मत दीजिये।


सत्ता ही 

दुनिया में 

एक मात्र सत्य है।



- आशुतोष चन्दन

Monday, September 14, 2020

मेरी ज़ुबाँ में सब शामिल हैं





मेरी ज़ुबाँ में सब शामिल हैं, सबमें आता-जाता हूँ

सबसे होकर मेरा रस्ता, मुझ तक मुझको लाता है।


दुनिया भर में कभी किसी भाषा का अचार नहीं डाला जा सका है, न ही कलौंजी-कोफ़्ता वग़ैरह बनाया जा सका है। अरे सच में! कहीं देखा-खाया हो तो बताइए। भाषा का काम दरअसल दो लोगों के बीच अनगिनत शब्दों, ध्वनियों आदि से एक पुल बनाना है। लचीला सा। जैसा दो पहाड़ियों के बीच होता है न, वैसा। एक तरफ से दूसरी तरफ विचार आते-जाते हैं और पुल उनकी लय में डोलता रहता है। क्या हो अगर दोनों पहाड़ियों से सेनाएं दौड़ा दी जाएं ? भारी-भरकम धारदार हथियारों के साथ पैदल और घुड़सवार सैनिक दौड़ पड़ें दोनों ही ओर से ? गोला-बारूद लादे टैंक्स उतार दिये जाएं उन पुलों पर?  तो ? .....चरमराकर टूट जाएगा पुल। अपने लचीलेपन के बावज़ूद टूट जाएगा। फिर कभी कोई न जा सकेगा इधर से उधर। चाहकर भी। अपनी-अपनी चोटियों पर दोनों तरफ़ लोग फँस जाएंगे। हाँ जिन्हें आना-जाना ही नहीं कहीं, ठस्स बैठे रहना है या ज़्यादा से ज़्यादा फुदक लेना है अपने कुएँ में, उनके लिए तो उनका कुआँ ही भवसागर है। यूँ तो मेंढक का किसी अवतार कथा में ज़िक्र नहीं आता, लेकिन कूपमंडूक-शिरोमणि स्वयं को किसी अवतार से कम मानते होंगे, इसमें पर्याप्त संदेह है। मतलब यूँ समझिये कि एक कुएँ में पचास मेंढ़क हों तो कम से पैंतीस अवतार और बाक़ी पंद्रह भक्त। दै ! भक्त सुनते ही आप ऐसा मुँह क्यों बना लेते हैं भाई ? मैं साहित्यिक अवतारों और उनके भक्तों की बात कर रहा हूँ अभी। 

हाँ तो ये हुआ एक कुएँ का हाल। ऐसे कितने ही कुएँ और कितनी ही पहाड़ियाँ होंगी! जहाँ ठस्स अवतारों के बीच कितने ही ऐसे लोग होंगे जिन्हें जीवन, दुनिया, भाषा के नये और अनजान प्रदेशों में जाना पसंद होगा, संवाद पसंद होगा। दुनिया भर में भाषाएं ऐसे ही यायावरों की बदौलत बढ़ी और एक दूसरे से मिलती-जुलती रही हैं। मसलन मेरे इस पूरी चकल्लस का पहला वाक्य ही ले लीजिए। कोफ़्ता फ़ारसी शब्द है जो उर्दू से होता हुआ हमारी बोलचाल में शामिल हुआ है। कोफ़्ता का मतलब होता है कूटे-पीसे गए मांस की गेंद। यस!  योर दैट टेस्टी मीटबॉल इज़् कोफ़्ता बेसिकली, इन पर्शियन। जैसे बिरयानी, जिसका अर्थ होता है मांस के साथ पकाया गया अन्न, शाकाहारी लोगों की जमात में मांस हटाकर तरकारी डाल देने से वेज बिरयानी हो गया, वैसा ही कोफ़्ता के साथ भी हुआ। अब सब लोग फ़ारसी-उर्दू तो बोलते नहीं, लेकिन कोफ़्ता ज़रूर बोलते हैं, बिरयानी बोलते हैं, वो भी चटखारे ले-ले कर। आप सोच रहे होंगे भाषा की बात करता हुआ मैं कोफ़्ता और बिरयानी में क्यों रम गया? दरअसल खान-पान हमारी संस्कृति का हिस्सा है और भाषा का संस्कृति से बहुत गहरा और महत्त्वपूर्ण रिश्ता है। अब देखिए संस्कृति कोई सामान तो है नहीं कि एक संस्कृति का व्यक्ति दूसरी संस्कृति के व्यक्ति से मिलने पर अपनी जेब में हाथ डालता हो और अपनी पचास ग्राम संस्कृति  दूसरे की जेब या झोले जबरन डाल देता हो। जब दो अलग-अलग संस्कृतियों के व्यक्ति  संपर्क में आते है तो उनकी भाषा उनके खान-पान और रहन-सहन से होते हुए एक-दूसरे के दालान में दाख़िल होती है। धीरे-धीरे भाषा का अदृश्य पुल उन दोनों के बीच झूलने लगता है। न जाने कितने शब्द महासागरों, पर्वतों, रेगिस्तानों, नदियों, मैदानों की सीमाएं तोड़कर अनगिनत क़िस्से लिए एक-दूसरे से मिलते हैं। ऐसे घुल मिल जाते हैं जैसे हमेशा से यहीं रहे हों। कभी आपने सोचा है कि आपके कमरे में रखी 'कुर्सी' किस भाषा से आयी है आपकी ज़ुबान पर? या 'कमरा' ख़ुद ? नहीं न? और एक दिन अचानक कोई एक भाषा का नारा देकर हमारे हाथों में लाठी पकड़ा देता है। उसके नारे की थाप पर हम लाठी भाँजना शुरू कर देते हैं, बिना ये जाने कि भाषाएं लाठी के बल पर बहुत देर तक नहीं टिकतीं।

हम अगर अलग-अलग हिस्सा बाँट लेंगे, तो कोई कहीं नहीं जा पाएगा। न हिंदी में, न तेलुगु में, न गारो में, न डोगरी में, न मराठी में, न मलयालम में, न मैथिली में, न उर्दू में, न अहोमिया में, न कन्नड़ में, न उड़िया में, न पंजाबी, न हरियाणवी, न अँग्रेजी में, कहीं भी नहीं। और तो और भोजपुरी और बज्जिका में भी नहीं आ-जा पाएंगे !

आप सब लोग तो जानकार लोग हैं। ख़ुद जानते होंगे कि किसी भाषा/ बोली में फँसा हुआ आदमी, अपनी भाषा को भी फँसा देता है । फिर वो भाषा हो या पानी या कि रिश्ता, अटके हुए सभी एक न एक दिन सड़ाँध पैदा कर ही देते हैं।

तो आइये, अपनी-अपनी भाषा की गिरहें खोलें, साथ-साथ बतियाएं, बोलें, कि किसी भी भाषा/बोली का विकास परस्पर प्रतिस्पर्धा से नहीं, एक दूसरे को समृद्ध करने से होता है। प्रेम और हवस में अंतर तो होगा न ! ऐसा ही भाषा के मामले में भी है। आपका भाषा/बोली -प्रेम, भाषा/बोली के नफ़रती गिरोहबाज़ों के मुँह पर तमाचा होगा। दूसरी तरफ़ आपकी भाषाई हवस ख़ुद आपको भी उन दलालों की दुकान पर कब टाँग देगी, आपको भी पता नहीं चलेगा।

भाषा की चिंता करना लाज़मी है लेकिन तार्किक रूप से सोचते हुए। देखा जाय तो किसी भी भाषा की उन्नति उस भाषा को बोलने-बरतने वाले लोगों की उन्नति के साथ-साथ हुई है। इसी तरह संभव ही है। ग़ौर करने वाली बात ये है कि एक भाषा की उन्नति दूसरी भाषा या उस भाषा को बरतने वाले लोगों का रास्ता रोककर नहीं हो सकती। ऐसा करना मूर्खता की निशानी है। अब हम लोग मूर्ख तो है नहीं ! हैं जी ? कोई संदेह है क्या ? नहीं है भाई ! इसीलिए  ठस्स गौरव और हीनताबोध के इतर भाषाई सौहार्द पर ज़ोर देना होगा। सत्ता का अपना चरित्र होता है। वो भाषा और संस्कृति के प्रश्न को एकाधिकार के प्रश्न में बदल देती है। हिंदी को तमाम अन्य भारतीय भाषाओं और वैश्विक भाषाओं की चुनौती में नहीं, सहजीविता और सामंजस्य में बरतने की ज़रूरत है। सबसे महत्वपूर्ण बात कि हमें भाषा के सवाल को रोज़गार के सवाल से जोड़ने की क़वायद शुरू करनी पड़ेगी। हमें सरकारों से ये सवाल उठाना पड़ेगा कि हिंदी समेत इस देश की तमाम भाषाओं में राज-काज समेत सारे काम क्यों नहीं किये जाते ? अंग्रेजी का सम्पर्क भाषा के रूप में कोई विरोध नहीं है लेकिन औपनिवेशिक शासन की तरह उसका अन्य भाषा-भाषियों पर दबाव उचित नहीं है। शिक्षा और रोज़गार के क्षेत्र में हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं को दोयम दर्ज़े का और उन भाषाओं को बोलने वालों को कमतर मानना बंद करना होगा। ख़ुद भी हिंदी या अपनी भाषा बोलते हुए सकुचाने की ज़रूरत नहीं है। और जैसा कि ऊपर कन्फ़र्म किया जा चुका है कि हम-आप मूर्ख नहीं हैं तो हम हिंदी वाले अपने ही देश की अन्य भाषाओं के साथ भी वैसा व्यवहार नहीं ही करते होंगे जैसा हम अपने लिए नहीं चाहते। है कि नहीं ? हैं जी ? संदेह है क्या ?


- आशुतोष चन्दन


Friday, September 11, 2020

चार दृश्य : मुक्तिबोध










मुक्तिबोध : पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

साहित्य, कला, संस्कृति के निष्पक्ष अलंबरदार :

हैं जी ? पॉलिटक्स ? वो क्यों ? माने पॉलिटक्स की ज़रूरत ही क्या है ? आई हेट पॉलिटक्स ! जो ग्रांट दिला दे उसकी जै-जै करना, किसी के नाटक, कविता-संग्रह, उपन्यास, किसी भी किताब की गलदश्रु भाव से समीक्षा लिखना, किसी मठाधीश की चरण-चम्पी करना, अपनी जात और धरम-प्रदेश का देखते ही खेमेबाज़ी करने लगना, मौक़े-बेमौक़े दाएं-बाएं होते हुए दुलकी चाल से चलते रहना पॉलिटक्स नहीं होती। मुझे इन सब में न फँसाइये, मेरा रास्ता बीच का है। 


(दृश्य दो)

मुक्तिबोध : पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

निष्पक्ष क्रांतिकारी : 

वही वही आप वाली मेरे प्रिय कवि! बस कभी-कभी पाठक पाने-बनाने के लिए  तमाम साहित्य सम्मेलनों में आवाजाही कर आता हूँ। जुग-जमाना ख़राब है न, सबसे बना कर चलना पड़ता है। आज जिस चैनल या अख़बार को गरियाते हैं, कल उसी में छपना भी होता है, उसके कार्यक्रम में ज्ञान उलीचने भी जाना पड़ता है...क्या कीजियेगा.. लेकिन पॉलिटक्स, माँ कसम आप वाली ही है ! 

(दृश्य तीन)

दूर कहीं 'अँधेरे में' कोई युवा विद्यार्थी बैठा हुआ तमाम मठ और गढ़ देखता, लिजलिजे लेकिन शातिर लोगों के पैंतरों के बीच अपनी अभिव्यक्ति का रास्ता तलाशता अपनी कसौटी चुन रहा है...हल्के- हल्के होठों से बुदबुदाते हुए...लेकिन मन में कहीं ज़ोर से...

पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?...पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?

(दृश्य चार)

मंद-मधुर संगीत के बीच कुछ लोग शहतीरें छिल रहे हैं। कुछ निपुण कलाकार सलीबें बना रहे हैं। कविगण सलीबों पर सुंदर-सुंदर कविताएँ उकेर रहे हैं और रह-रह कर प्रकाशकों की ओर एक नज़र देख ले रहे हैं। प्रकाशक अनुमोदन में सिर हिलाने से पहले राजा के झुकाव का कोण याद कर रहे हैं।  कुछ कलात्मक अभिरुचियों वाले आम नागरिक इस महान दृश्य को इंस्टाग्राम और फ़ेसबुक पर लगातार साझा कर रहे हैं। उदात्त भाव से लैस गुरु-गंभीर मल्टीपॉलिटकल शेड वाले कुछ रंगकर्मी उन बिखरी सलीबों से अपने नाटक के एस्थेटिक के लिए प्रेरणा ले रहे हैं। एक तरफ़ सलीबों की विशेषता और प्रासंगिकता पर ऑनलाइन सेमिनार आयोजित किये जा रहे हैं। बुलाये गए वक्ता गदगद और न बुलाये गए उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। किटकिटाहट की ध्वनियाँ अलबत्ता दोनों ही ओर से आ रही हैं।

चारों ओर सलीबें बिखरी पड़ी हैं....बहुत सी सलीबें। एक सधी हुई लय में अनगिनत सलीबें लगातार बनायी जा रहीं हैं कि एक अकेली सलीब हौसले और प्रतिबद्धता से भरे किसी हृदय का भार नहीं सम्हाल सकती। 

उन्हें भी पता है कि कुछ सवाल लहूलुहान होकर भी बार-बार उठ खड़े होते हैं, उनका जवाब मिलने तक...

मसलन...

 पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ?


- आशुतोष चन्दन

Friday, May 8, 2020

दो नॉनवेजिटेरियंस की वार्ता।*



- 'जिसका हृदय उतना मलिन, जितना कि शीर्ष     वलक्ष है'

- ये किसने लिखा ?

- ये दिनकर ने लिखा था 'कुरुक्षेत्र' में।

- माने ?

- माने, भीतर भरा कचरा, ऊपर बाबा संत !

- ई कौन बोलिस ?

- हम बोले बे !

- अच्छा।

- साहित्य समाज के आगे चलने वाली मशाल है।

- भक बे! अइसा थोड़े ही होता है ?

- हम न बोले बे, प्रेमचंद बोले थे ये।

- हैं ? सच में? मज़ाक न करो मे !😲

- नहीं, सच में वही बोले थे।

- अच्छा, तब्बे अब के साहित्यकरवा उहे मशाल लेके आपस में लगाए - बुझाए रहते हैं।

- जाने दो बे। उनका मन।

- काहें जाने दें बे? पढ़ते-लिखते-कलम पकड़ते ही मार चारों ओर से कोंचने लगते हैं सब, पॉलिटिकल करेक्टनेस! पॉलिटिकल करेक्टनेस !
जेंडर सेंसटिविटी ! जेंडर इक्वलिटी ! अपनी बारी सब सन्नाटा काट लेते हैं? ज़ोर लगा के सुरुक लेते हैं ! सब नीति-नियम खाली नये लोगों के लिए है ?

- अबे तुम तो सेंटी हो गये बे!😢

- यार जिउ आजिज आ गया है इनकी दुर-दुर बिल-बिल से। पहली बार थोड़े ही है इनका। भूल गए पिछली बार का ?

- जाने दो यार।

- क्या जाने दें बे ?

- नहीं तो का करोगे ?

- मतलब 🤔

- मतलब कर का लोगे ? हो कौन बे तुम ?

- 🙄

- कै ठो कहानी पब्लिश हुई है ? कितना उपन्यास लिख मारे हो? एक्को बेस्टसेलर ? कोई विमोचन-उमोचन ? पुरस्कार ? आलोचक हो? प्रोफ़ेसर हो कहीं पर? कहीं बकैती वग़ैरह के लिए पूछता है तुमको कोई ?

- 😶

- फ़ीता काटने के लिए ही सही ?

- हाँ एक बार।

- हैं ? कब ? 🤔

- अरे कुछ ख़ास आयोजन नहीं था। एक आदमी का जूते का फ़ीता फँस गया था, ऐन मंदिर के गेट पर। वहीं सिविल लाइंस वाले हनुमान मंदिर पर। तो जूता निकलने को एकदम तैयार नहीं और भाई साहब को करना था दर्शन। थोड़ी देर हुज्जत करते देख के हमारा दिल पसीज गया। पूछे- भाई साहब, काट दें ?
बोला - हाँ, भाई काट ही दीजिये। हम अपने पिट्ठू बैग से कैंची निकाल के काट दिये। माने पहली बार कोई आदमी कटवा के इतना ख़ुश था।

- अबे ये वाला फ़ीता नहीं, कहीं किसी       साहित्यिक मॉल वग़ैरह के उद्घाटन वाला फ़ीता ! और तुम मंदिर का करने गए थे? तुम तो जाते
  नहीं हो?

- न, वैसा कोई फ़ीता नहीं कटवाया कोई हमसे। और कोई फ़ीता-ऊता कटवाए, कहानी-उपन्यास पब्लिश हो तबै बोलें ? हम तो तुमसे कह रहे हैं अपने मन की। और मंदिर जाने वाली बात पुरानी है बे ! तब तक नास्तिक नहीं थे हम। बाकी अब भी बेसन वाला लड्डू, सूजी का घी में तर हलुआ मिल जाये तो मंदिर- गुरुद्वारे हर जगह जाएं।

- मस्जिद नहीं ?

- कर दिये अपने मुँह जैसी बात ! उहाँ ई प्रसाद नहीं मिलता है। बाकी रमजान भर ललकी सेंवई लाकर खाने का जो मज़ा है मत पूछो। कभी  शकील-शरद मिलें तो पूछना, चीनी डाल के
दूध-बिना दूध दूनो तरह से कितना मज़ा आता है ! अब तो उन दोनों का भी मोहल्ला बदल गया है।

- ई दो कौड़ी की आदमख़ोर पॉलटिक्स जो न कराये।

- हम्म यार।

- वैसे बात कहाँ से शुरू किये रहे तुम अउर आ गए सेंवई पर ?

-  अबे ई साहित्ययकवन की बात  कर के मुँह कड़वा हो गया था, इसलिये मन अपने-आप इधर ले आया। सायकॉलजी तो पढ़े हो तुुुमम बी.ए. में।

- हाहाहाहा ...सही है! अच्छा, जी हल्लुक हुआ तुम्हारा ?

- हाँ बे, अब ठीक है।

- सही है, ऐसे ही बतिया लिया करो। लॉकडाउन में कोरोना ध लेने का ख़तरा है नहीं तो चला जाता इलाहाबाद। गुरू जी भी मिल जाते और यार दोस्त भी। सबेरे दारागंज में जलेबी-आलूदम अउर संझा को सिविल लाइंस में कफ़ील भाई के यहाँ मुर्ग के शोले!

- अबे का याद दिला दिये बे! मन करने लगा। 🤢

- हाहा, चलो मिलते हैं जल्दी ही। बाकी खाली हिंदी साहित्य ही दुनिया नहीं है, बाकी भारतीय भाषा का साहित्य भी पढ़ो, देश के बाहर का
भी। तब दिखेगी वो मशाल जिसके बारे में प्रेमचंद बोल के गए थे।

- चलो अब हमको चाटो मत, जा रहे हैं हाफ़ फ्राई बनाने। 🙄

- आशुतोष चन्दन



Sunday, July 28, 2019

राष्ट्र को ख़तरा हमारे प्रश्न से है !





राष्ट्र कभी नहीं मरता।
राष्ट्र की सीमाएं/ परिभाषाएं
जवान होती चलती हैं।
बचा रहता है गौरव-गान 
घृणित से घृणित समय में भी
वमन के बाद मुँह में बचे कसैले स्वाद सा।

जब राष्ट्र की सीमा पर सैनिक
ख़र्च किये जा रहे होते हैं 
उबटन की तरह
और निखरकर चमकने लगती हैं
सत्ता-लोलुप भेड़ियों की महत्वाकांक्षाएं,
राष्ट्र को तब ख़तरा नहीं होता।

जब राष्ट्र की सीमा के भीतर
ज़िबह हो रहे होते हैं
किसान, मज़दूर, आदिवासी, नौजवान,
और हम जैसे लोग
अपनी-अपनी ज़िंदगी की लंगोट बचाये
सवाल तक नहीं करते,
राष्ट्र तब ख़तरे में नहीं होता।

हाँ तब भी 
जब कश्मीर से लेकर बंगाल तक
मुम्बई से लेकर दिल्ली तक
विस्थापितों की भीड़
मारी-मारी फिरती है
अपना टीन-टप्पर उठाये
और उन्हें एक घर तक नसीब नहीं होता,
राष्ट्र बिल्कुल भी ख़तरे में नहीं होता
कि बाढ़, सूखा, बेरोज़गारी 
और आतंक से उपजा विस्थापन
नेताओं की संसदीय वासना-पूर्ति में
किसी शक्तिवर्धक कैप्सूल से ज़्यादा काम आता है।

चाहे किसी जानवर की छोड़ी गयी साँस से
पड़ रहे हों राष्ट्र के बदन पर फफोले,
धर्म की धौंकनी और इमारतें 
लीलती जा रही हों भाईचारा
इतिहास-बोध और इंसान तक,
जब जाति के नाबदान से 
बाहर आने की छटपटाहट पर 
पीटी जा रही हों तालियाँ अश्लीलता से,
तब भी ख़तरे से बाहर
निश्चिंत होता है राष्ट्र।

सत्ता और उसके प्रतिष्ठानों पर उठाए जा रहे प्रश्न
जब सीने पर गोलियां खा रहे हों
या कायर बंदूकें दाग रही हों गोलियां
साहसी प्रश्नों के पीठ पर 
और संगठित प्रश्नों को
सामूहिक रूप से घोषित किया जा रहा हो देशद्रोही,
राष्ट्र तब भी सुरक्षित ही तो होता है।

भले ही सीमांतों से लेकर राजधानी तक
नोंची जा रही हों राष्ट्र भर में स्त्रियां,
वृद्धाएं, किशोरियां
और बलात्कार के सामूहिक उत्सवों के दौर में
नवजात बच्चियों तक को 
मान लिया गया हो 
पुरुष-लिंग के अनुपात का एक मांस-पिंड !
ऐसे घृणित, वहशी, अमानुषिक समय में भी 
राष्ट्र ज़िन्दा रहता है,
शर्म से मरता नहीं।
और गौरव-गान उसका
अबाध जारी रहता है,
छद्म राष्ट्रभक्तों के समवेत 
घाघ मधुर स्वर में।

बिल्कुल !
हम सब परिवार वाले हैं !
अपने-अपने महान धर्म के 
अपनी-अपनी जात वाले हैं।
हमारी भी रोज़ी-रोटी है,
माता-पिता हैं,
बीवी है-बेटी है !
कैसे कह दें
कि हर अमानुषिक घटना में
थोड़ा-थोड़ा रोज़ ही मरता है राष्ट्र
और वो कुमकुम नहीं है,
जो कि भारत माता के 
भाल से बहता हुआ
कर रहा है देह सारी गेरुआ,
रक्त है !
बह रहा जो अनगिनत घावों से होकर।

कैसे कह दें, राष्ट्र के नासूर सारे
बन रहे मंत्री, मुहाफ़िज़ और महाजन,
वाइज़ औ पंडों की सारी टोलियां
कर रहीं गुणगान उनका ही निरंतर।
देखना भी जुर्म है उनकी तरफ़ अब
औ प्रश्न करना देशद्रोह की निशानी ! 

सो रक्तरंजित राष्ट्र को यूँ देखकर भी
आइये हम चुप रहें !
नेपथ्य में ख़ामोश बैठें !
या कि गाएं राष्ट्र-गीत, राष्ट्र-गान
अपनी लिजलिजी आवाज़ में,
और संग हो ध्वज-प्रणाम !

शेष सबकुछ है चकाचक
बस राष्ट्र को ख़तरा हमारे प्रश्न से है।

- आशुतोष चन्दन 
  

Sunday, May 26, 2019

आस्तीन


वक़्त की दरकार यही है
कि हम-आप अपनी आस्तीनें
काट कर फेंक दे!
इसलिए नहीं
कि किसी ने दिया है
आस्तीन धोने या इस्त्री करने में ज़्यादा समय लगने का तर्क!
न ही कपड़ा बचाने के लिए।

अगर आप अपनी आस्तीनें
झाड़ कर देख नहीं सकते,
अपनी लापरवाही या बेमन में
साँपों को, सपोलों को
बने रहने देते हैं वहीं
उनके अंडों-केंचुली समेत,
तो उसे काट कर फेंक दीजिए।
आप की आस्तीनें
आप के लिए ही नहीं,
दूसरों के लिए भी ख़तरनाक हो चली हैं।

वरना मोड़कर देखिये,
झाड़कर,
डुबोकर उबलते पानी में भी ।
क्या पता हमारी-आपकी आस्तीन में ही
उसकी सिलाई में,
महीन से महीन रेशे में
पल रहे हों वो साँप
जिन्हें मारने को हम आप लाठी भाँजते रहते हैं
बाहर।
धर्म और जाति के ज़हर भरे फन वाले
औरत को देह मान लपलपाती जीभ वाले,
पैसे के, रुतबे के,श्रेष्ठता के दंभ में
दूसरों को निगल-निगल बढ़ते-मुटाते जाते
चिकने सुनहले शातिर और घाघ साँप !

आशुतोष चन्दन
26 मई 2019

Sunday, April 28, 2019

तीसरी आँख थे एस. त्यागराजन



जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के किसी मंच पर कोई नाटक मंचित हो रहा होता, तो अभिनेता व प्रकाश/संगीत से संबद्ध कलाकारों और दर्शक के अलावा एक और आँख होती थी, जो मंचन को पूरी सजगता से देख रही होती थी। नंगी आँखों से नहीं, कैमरे की आँखों से। मंच पर घटित हो रहे नाटक के एक-एक फ्रेम, एक-एक बिम्ब को, रंग के मुख़्तलिफ़ शेड्स को, मंच-सज्जा के हर पैटर्न को, अभिनेता के हर भाव को, उसके शरीर की हर भंगिमा को देखते हुए उनमें से सुंदरतम को चुन लेने में महारत हासिल थी एस. त्यागराजन को।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नयी दिल्ली में एकाउंटेंट की तरह दाख़िल होने से लेकर वर्ष 1980 में डार्क रूम असिस्टेंट, वर्ष 1988 में सीनियर फ़ोटोग्राफ़र होने और सेवानिवृत्त होने तक लगातार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्रस्तुतियों को कैमरे की ज़ुबान में दर्ज करने की लंबी यात्रा के बाद आज 28 अप्रैल 2019 को एस. त्यागराजन इस दुनिया को अंतिम विदा कह गये। ‘मैंने तेईस साल तक नाटकों को सिर्फ़ व्यूफाइंडर से देखा है’ कहने वाले एस. त्यागराजन की नज़र से ब.व.कारंत, मोहन महर्षि, के.एन. पणिक्कर, रतन थियम, बंसी कौल, अनुराधा कपूर, त्रिपुरारी शर्मा, नीलम मानसिंह चौधरी सहित देश-विदेश के तमाम प्रसिद्ध निर्देशकों की कई महत्त्वपूर्ण प्रस्तुतियां गुज़री हैं।
(नीलम मानसिंह चौधरी निर्देशित नाट्य-प्रस्तुति 'नेकेड वायसेस' से)
                       
                   रंगमंच जैसी विधा को दर्ज़ करना अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण और उतना ही मुश्किल काम है। शाब्दिक वर्णन पाठक को बिम्ब तो देते हैं लेकिन मंचित नाटक का वर्णन पढ़ते हुए पाठक कई बार नाटक को अपनी भिन्न-भिन्न कल्पना शक्ति में वैसा नहीं देख पाता, जैसा नाटक दरअसल मंचित हुआ होगा। वीडियोग्राफ़ी नाट्य-प्रस्तुति को हूबहू दर्ज़ तो करती है, लेकिन उसकी एक अलग सीमा है। नाटक का वीडियो, देखने वाले को मंचन की जो नकल या प्रति दिखाता है, वह वीडियोफ़िल्म पर उतारी गयी प्रति होती है। अच्छी तकनीक के बावजूद दर्शक अमूमन उस अनुभूति से नहीं गुज़र पाता, जिस से वो सभागार में मंचित हो रहे नाटक को देखते हुए गुज़रता है। वो कौन सी चीज़ है जो ऐसा होने से रोकती है ? मेरी नज़र में वो चीज़ है, फ़ोकस और अंतराल। फ़ोकस और अंतराल के बीच की लय। सभागार में बैठकर नाटक देख रहे दर्शक की आँखें मंचित हो रहे नाटक को लगातार संपूर्णता में देखते हुए भी अलग-अलग फ्रेम्स में देख रही होती हैं,  एक क्षणिक अंतराल में। ये फ़ोकस की ख़ूबी मानवीय आँख की है। जैसे पेड़ की फुनगी के ऊपर खिले चाँद को देख रही हमारी-आपकी आँखें चाँद को भी देख रही होती हैं, पेड़ के एक बड़े हिस्से को भी और क्षण भर के अंतराल में पेड़ की फुनगी को भी। ये फ़ोकस की शिफ़्टिंग एक तरह का काव्यात्मक असर पैदा करती है। वीडियो में रिकॉर्ड किये गए नाटक में हम ऐन वही देख रहे होते हैं, जो कैमरा दिखाता है। न कम, न ज़्यादा। तस्वीरें, एक अलग भावभूमि रचती हैं। एक अच्छी तस्वीर एक ही समय पर एक निश्चित डिटेल्स वाली हो सकती है और बहुविध संभावनापूर्ण काव्यात्मक भी। किसी नाट्य-प्रस्तुति की अलग-अलग तस्वीरें देखते हुए हम उस प्रस्तुति के अलग-अलग फ़ोकस्ड फ्रेम को देख रहे होते हैं। उस फ्रेम की बारीक से बारीक डिटेल्स देखी जा रही होती हैं। साथ ही बहुत सी तस्वीरों के बीच के अंतराल को भी महसूस किया जा सकता है। यह अंतराल, जो न ली गयी तस्वीरों के कारण उपजता है, देखने वाले को कल्पना के लिए स्पेस देता है। एक ऐसी कल्पना जो शाब्दिक वर्णन से उपजने वाली कल्पना की बनिस्बत एक ज्यादा भरोसेमंद आधारभूमि रखती है। वीडियो देखते हुए जिसकी संभावना बहुत ही कम होती है। एक अच्छी तस्वीर मंचित नाटक के फ्रेम को उसकी अधिकतम डिटेल्स के साथ देखने वाले के सामने रखती है। यक़ीनन चलते नाटक के दौरान, बदलती प्रकाश योजना के बीच गतिमान दृश्यों में से दृश्य का एक महत्त्वपूर्ण टुकड़ा, एक सुंदर फ्रेम, एक सटीक तस्वीर उतार पाना अपने आप में एक चैतन्य साधना है। सजगता में एक चूक और वो क्षण, जो सबसे महत्त्वपूर्ण हो सकता था, एक संभावनापूर्ण तस्वीर बन सकता था, ओझल हो जाने का ख़तरा बना रहता है। एस. त्यागराजन को इस चैतन्य साधना में महारत हासिल थी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के परिसर में लगी उनकी ली गयी तमाम तस्वीरें उनकी इस महारत की साक्षी हैं। मैं वर्ष 2006 से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्रस्तुतियाँ देखता रहा हूँ। इस दौरान मैंने कभी भी चलते नाटक के बीच उन्हें तस्वीरें क़ैद करने के लिए सभागार में इधर-उधर भागते नहीं देखा। मैंने ही क्या, संभवतः किसी ने भी नहीं देखा होगा। तस्वीरें मानो उनके पास ख़ुद आती थीं दर्ज होने। व्यूफाइंडर के पीछे लगी एस. त्यागराजन की आँखों को पता होता था उनकी आमद का और वे आँखें हमेशा मुस्तैदी से तैयार रहती थीं।
              उन्होंने कभी भी अपने काम को महज़ काम की तरह नहीं लिया। अपनी कला को लेकर उनमें इतनी शिद्दत थी कि बारीक से बारीक बेहतर अन्तर की तलाश में वो एक ही नाटक अलग-अलग कई शो की तस्वीरें उतारते दिख जाते थे। एस. त्यागराजन कहा करते थे कि दर्शक जो इतने मन से नाटक देखने आए हैं, उन्हें तस्वीरों के लिए डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि उन्हें मंच पर साइलेंस में घटित हो रहे दृश्यों के दौरान क्लिक तक करना पसंद न था और वे अमूमन ऐसा नहीं करते थे। हम-आप जो सहृदय दर्शक के तौर पर अपना मोबाइल साइलेंट या वाइब्रेशन मोड पर डालना भूल जाते हैं, न जाने कितनी ज़रूरी कॉल्स रिसीव कर चलते नाटक के दौरान ज़ोर-ज़ोर से फुसफुसा लेते हैं, हमें एस. त्यागराजन की इस नज़ीर से दर्शक होने का शऊर सीखने की ज़रूरत है।

                         एस त्यागराजन सर से मेरा व्यक्तिगत परिचय तब हुआ, जब मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की “थियेटर इन एजुकेशन कम्पनी” (संस्कार रंग टोली) में शामिल हुआ। वर्ष 2014 में। उसके पहले भी उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के परिसर में हमेशा एक खिली हुई मुस्कान के साथ जब-तब देखता आया था। लेकिन क़रीब से मिलने, बोलने-बतियाने के बाद पाया कि त्यागराजन सर कितनी सकारात्मक ऊर्जा से लैस व्यक्ति थे। शायद व्यक्तिगत अतीत के निगेटिव्स से उन्होंने अपने लिये और दुनिया के लिए रंगीन तस्वीरें तैयार करने का बाकमाल हुनर सीख लिया था। उनसे नज़र मिलने भर की देरी होती कि उनका चेहरा बच्चों सी मुस्कान से खिल जाता और फिर उन्हें देखने वाले का भी। मानो उस माहिर फ़ोटोग्राफ़र ने अचानक कैमरा सामने कर कह दिया हो ― स्माइल !

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्रस्तुतियाँ  अपने प्यारे फ़ोटोग्राफ़र को याद करेंगी, विद्यालय परिसर में आने-जाने वाले लोग त्यागराजन सर की उतारी गयी तस्वीरों को, और मुझ जैसे तमाम लोग उस गर्मजोशी से भरी निश्छल मुस्कान को...उस अनकही “स्माइल!” की आवाज़ को।

अलविदा त्यागराजन सर।

                                    - आशुतोष चन्दन