Monday, February 25, 2019

ग़ज़ल

कल हक़ीक़त में नज़र आएंगी मुझको रोटियाँ
आज फिर इक बार वो ये सोचकर सो जाएगा।

भगवान है, दिखता नहीं, हमने सुना बचपन से है
इंसान भी बस कुछ दिनों में गुमशुदा हो जाएगा।

सच की ख़ातिर मर मिटो हर धर्म है कहता मग़र
क्या ख़बर थी धर्म का मतलब जुदा हो जाएगा।

क़त्ल करना ही अगर मज़हब है सबके वास्ते
कल कोई क़ातिल यहाँ शायद ख़ुदा हो जाएगा।

क़त्ल कर दे तू मुझे भी गर यही है धरम तेरा
मेरे मज़हब का भी कुछ तो हक़ अदा हो जाएगा।

हम अगर हों साथ तो आएगा फिर से इंक़लाब
ज़र्रा ज़र्रा मुल्क़ का आतिशफ़िशां हो जाएगा।

हाथ दो और हाथ लो फिर दिल मिला कर देख लो
देखते ही देखते इक कारवाँ हो जाएगा।

वक़्त है अब भी सम्हल जा तू वगर्ना एक दिन
वक़्त के तूफ़ान में तन्हा कहीं खो जाएगा।

आशुतोष चन्दन

ग़ज़ल

चेहरा लोगों का यूँ सुर्ख़ और आतिशां क्यूँ है
इस शहर में हर इक मोड़  हादसा क्यूँ है।

न कहीं आग लगी न कोई भी घर है जला
फिर हवाओं में तपन और धुँआ सा क्यूँ है।

न कहीं भूख न दर्द सियासत के दस्तावेज़ों में
हर इक मज़लूम और इक ज़िंदा लाश सा क्यूँ है।

रहीम ओ राम पे मिटने और मिटाने वाला
हर इक वाइज़ ख़ुद में ही एक ख़ुदा सा क्यूँ है।

रंग ओ सूरत है जुदा, ओ रे ख़ुदा तू भी जुदा
रग़ों में दौड़ता लहू फिर एक सा क्यूँ है ।

आशुतोष चन्दन

ख़ुदा..आदमीयत ...और हम


ख़ुदा..आदमीयत ...और हम 

ये हिंदी ये उर्दू ये इंग्लिश के मेले
ज़ुबानों- अदीबों के लाखों झमेले
हैं ढूंढें नज़र अब ज़हनियत कहाँ है
है ढूँढे नज़र आदमीयत कहाँ है।

हैं जिनके भी पेट भरे ,जेबें ऊंची
उन्हें इंक़लाबों से मुश्किल तो होगी
डॉलर-दीनारों की बारिश है जिनपर
ऐशों-आरामों की ख्वाहिश है जिनको
उन्हें कुछ बदलने की चाहत क्यों होगी
दुआएं,सभाएं और प्रार्थनाएं
बहाने पुराने हैं उन वाइज़ों के                         
असल बात हैं उनमें हिम्मत कहाँ है
है ढूँढे नज़र आदमीयत कहाँ है।

ये मंदिर ये मस्ज़िद ये गुरुद्वारे गिरजे
नहीं है नहीं है ख़ुदा अब कहीं पे 
ख़ुदा ग़र जो होता ये आलम न होता
न होती ये नफ़रत, ये दंगे न होते
न होते कहीं चन्द दौलत के पुतले 
करोड़ों यहाँ भूखे नंगे न होते
ये तक़रीरें-प्रवचन,ये वाइज़ ये पण्डे
ये फ़तवे-ये भाषण, ये तलवार-ओ-नेज़ें
कहीं पर धरम की दुकानें न सजतीं
ये सिसकी, ये आँसू , ये चीखें न होतीं
न दंगों में लुटती कहीं  कोई अस्मत
अनाथों सी होकर ये माँएं न रोतीं।

लिखा है अगर ये ईश्वर की है मर्ज़ी
जला दो धरम  की वो सारी किताबें
ख़ुदा ग़र मोहब्बत का है नाम दूजा
तो उसकी नज़र ऐसी वहशी न होगी
अगर ढूँढना है तुम्हें कुछ कहीं भी
तो ख़ुद में तलाशो मोहब्बत है कितनी
कि तुममें बची आदमीयत है कितनी
ये मजलिस-सभाएं, ये रथ-यात्राएँ
ये पहचानो इन सब की नीयत में क्या है
कि इंसां को इनकी ज़रुरत कहाँ है ?

बस ख्वाबों-ख़यालों में सुन्दर है दुनिया
या बंगलों के अन्दर ही सुन्दर है दुनिया
बाहर तो दुनिया में है भूख पसरी
दहशत से दुनिया है सहमी  औ सिहरी 
है जिनकी भी  मुट्ठी में दौलत या ताक़त
उन्हीं के लिए ख़ूबसूरत है दुनिया।

ये सब जानते हैं, सो सब भागते हैं
सभी दौड़ में हैं, ये सब जानते है
ये सारी क़वायद है पाने की केवल
उस दौलत की दुनिया का छोटा सा कोना
उस ताक़त की दुनिया का छोटा सा कोना
वो दुनिया जो  मखमल मुलायम है दिखती
वो दुनिया जो चमके है रंग-बिरंगी
इस चमकीली मखमल की रंगत के पीछे
दबे हैं जहाँ  के गरीबों के आँसू
उनके लहू और पसीने की सुर्खी।

ये सब जानते हैं ये वाज़िब नहीं है
ये सब मानते हैं ये जायज़ नहीं है
ये सब कुछ बदल जाए
सब चाहते हैं
अमन ही अमन हो
ये सबकी है ख्वाहिश
मगर कुछ बदलने की
कुछ कर गुजरने की
फुर्सत कहाँ है ?
बहाने बनाने की आदत हुनर है
असल बात ये है ,अहम बात ये है
कि दुनिया बदलने की
कुछ कर गुजरने की
हिम्मत कहाँ है ?
है ढूँढे नज़र आदमीयत कहाँ है।

                      - आशुतोष चन्दन

रंग खिलते रहें



रंग खिलते रहें सबके जीवन में।
लाल बाम पर खिले,
हरा खेतों में
और पीला सरसों पे, फूलों में-कलियों में,
नीला आकाश और समन्दर में,
जहाँ पर भी सपनों की गुंजाइश हो, वहाँ खिले।
पूरी दुनिया में बच्चे बढ़ते रहें
भर के सातों रंग अपनी फिरकियों, गुब्बारों और लट्टुओं में,
कि स्कूलों के सारे व्हॉइट और ब्लैक बोर्ड पर
खिल जाए सतरंगी इंद्रधनुष,
कि बच्चे
सीखने और रचने की देहरी पार कर
पहुँच सकें ज्ञान तक,
संवेदना के वितान तक,
कि दुनिया को उनकी बहुत-बहुत ज़रूरत है।

सफेद, चाँदनी के संग-संग बचा रहे
दुधमुँहे बच्चों के दूध के दाँत में,
सारी दुनिया के बच्चों के दूध-भात में,
कि कहीं कोई बच्चा भूख से न मरे।

दोस्ती में, प्रेम में, हर इंसानी रिश्ते में
बचे रहें दुनिया के सारे रंग
और बचा रहे पानी
सबकी ही आँख का
कि जब-तब सारे रंग थोड़ा-थोड़ा घोल के
कर दें खुशरंग अपने आस-पास दुनिया को,
पहले से सुंदर थोड़ा
थोड़ा और बेहतर।

  • आशुतोष चन्दन
    2 मार्च 2018 (होली)





'क से भय' - सत्ता का अपना व्याकरण

सच कहने के अपने ख़तरे होते हैं। सुकरात, गैलीलियो से लेकर  ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले दुनिया भर के गुमनाम से पत्रकारों, मानवाधिकार संगठन के लोगों, विद्यार्थियों आदि ने हर समय में सच बोलने की क़ीमत चुकाई है, अपनी जान देकर भी। चीजों को जानने-समझने, अपनी पक्षधरता तय करने और उसके लिए सब कुछ झोंक देने के हौसले के बीच का दौर कितना यंत्रणादायी और भयावह होता है, सब कुछ जानते-बूझते कुछ न कर पाने की कशमकश और तड़प किस हद से गुज़रती है….नाटक ‘क से भय’ इन सब को ठीक-ठीक सामने लाता है। इस नाटक को तैयार किया दिल्ली विश्वविद्यालय के मैत्रैयी कॉलेज की थियेटर सोसायटी ‘अभिव्यक्ति’ की युवा और बहादुर छात्राओं ने। निर्देशन चैताली पंत  और उर्जिता भारद्वाज का था और इस पूरी प्रक्रिया को मार्गदर्शन मिला था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्नातक स्वीटी रुहेल का। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के कन्वेंशन सेंटर में प्रस्तुत किया गया ये नाटक बरसों से बनाये जा रहे और आज के दौर में उभर कर आये भाषा और व्यवहार के हिंसक, स्त्रीद्वेषी, दलित-अल्पसंख्यक-विरोधी या यूँ कहें अपने मूलरूप में मानवद्रोही व्याकरण के चरित्र को अपना मूल कथ्य बनाता है। वह व्याकरण जो मुट्ठी भर सत्ता और प्रभुत्वसंपन्न लोगों द्वारा बहुसंख्यक आबादी पर जबरन थोपा जा रहा है। व्याकरण, जहाँ ‘क’ से किताब नहीं, ‘क से भय’ होता है। व्याकरण पितृसत्ता का, जो तय करता है स्त्रियों की भाषा-जीवन-व्यवहार के पैमाने। एक स्त्री क्या बोले, कितना बोले, क्या पहने, किसके सामने पहने, कहाँ कैसे जिये...सब उसी व्याकरण के हिसाब से, जिसके बनने में स्त्री का कोई सार्थक हस्तक्षेप नहीं। स्त्रियों को पुरुषों से कमतर मानने वाला  व्याकरण, जिसमें सवाल उठाने वाली स्त्रियों का कोई स्थान नहीं, बल्कि  वे स्वाभाविक रूप चरित्रहीन और अपराधी मानी जाती रही हैं। व्याकरण व्यवहार का, जो दुनिया भर के लिए निहायत ही ज़रूरी चीज़ों को गैरज़रूरी मानता है। जो मानता है कि सत्तापक्ष की दलाली ही व्यवहार का सर्वोच्च मानक है और जो इस मानक पर खरे नहीं उतरते, इस मानक को चुनौती देते हैं, वे समय की हवा के हिसाब से राष्ट्रद्रोही हैं, संस्कृति के लिए ख़तरा हैं, आतंकवादी हैं ! ऐसे समय में जब देश के तमाम मीडिया घरानों द्वारा सत्ता की दुम सहलाने की, फ़ायदे के लिए पत्रकारिता के सिद्धान्तों की दलाली करते हुए सत्ता के सामने झुक जाने की ख़बरें नाउम्मीदी का अंधेरा पैदा कर रही हैं, ‘क से भय’ जैसे नाटक ऐसी ही घातक दलालियों का चरित्र दर्शकों के सामने लाते हुए प्रतिरोध की रोशनी को और मज़बूत, और धारदार बनाते हैं। कॉलेज और विश्वविद्यालय के कैम्पसों में जहाँ देश के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग परिवेश और अनुभव को लिए युवा एक बेहतर कॅरियर का सपना लिए आते हैं, वहाँ ऐसे नाटकों  का लगातार होते रहना बहुत ज़रूरी है ताकि उन्हें इस बात का लगातार एहसास रहे कि उनके अपने सपने के बरक्स एक बहुत बड़ा सपना है, पिछली सदियों से चला आ रहा ….कि आने वाली पीढ़ी इस दुनिया को हमसे बेहतर सम्हालेगी, इसे और बेहतर बनाएगी। ये बहुत ज़रूरी है कि हम सब अपने-अपने सपनों में एक बेहतर दुनिया के सपनों को जगह दें। एक ऐसी दुनिया जहाँ ‘क से भय’ का व्याकरण बनने ही न पाए।


अभी भी वक़्त है

अभी भी वक़्त है

अभी भी वक़्त है,
आइये बोलें-बतियाएं
अपनी चौहद्दी के बाहर की दुनिया से
मेल-जोल बढ़ाएं,
थोड़ा मिलावटी हो जाएं।
अपने शुद्ध रक्त में मिल जाने दें
अलग-अलग संस्कृतियों के ख़ूबसूरत रंग...
कि हवा जो आपकी साँस में उतरती है,
ज़रूरी नहीं
कि किसी आपके के ही जात-धर्म-राज्य
या देश वाले की छोड़ी हुई साँस हो,
जिसे पेड़ों ने बदल दिया हो ऑक्सीजन में।
हो सकता है
जिसे आप मानते हों अस्पृश्य,
अछूत,
काफ़िर
या फिर देशद्रोही,
उसी की थकान से बोझिल
कल छोड़ी हुई साँस,
आज आपके नथुनों में घुसी हो
जिसके बल पर आप ख़ुद को
ज़िंदा पा रहे हैं।

मिट्टी,
जो आपके पैरों के नीचे है,
सिर्फ वही नहीं है मिट्टी ।
अफ्रीका के जंगलों में
कोको इकट्टठा करते,
बीमार पड़ते
और मर जाते बच्चों के पैरों के नीचे भी
यही मिट्टी धसकती है।
मगर मज़ाल है
कि हमारे-आपके मुँह में घुलती चॉकलेट में
स्वाद आ जाये उस मिट्टी का !

सम्मान करें !
सम्मान करें उनका भी
जो नहीं हैं आपकी नाप ली गयी ज़मीन के अंदर।
फलिस्तीन, सीरिया, इराक़, बगदाद, ढाका,
पेशावर, मुज़फ्फरनगर, गुजरात, अयोध्या,
अमृतसर, रावलपिंडी, लाहौर
और जर्मनी, कोरिया, वियतनाम, सोमालिया
और हाँ अमेरिका भी...
जहाँ भी बहता है ख़ून बेगुनाहों का,
गलत है !
कतई बर्दाश्त के क़ाबिल नहीं !

माफ़ी नहीं !
बिलकुल भी माफी नहीं।
हमें उनके मंसूबों को मात देनी ही होगी,
जो चाहते हैं कि मोहम्मद के नाम पर
उतार ली जाए किसी की गर्दन,
टांग ली जाए नेज़े पर
या कि राम के नाम पर चीर दी जाए
किसी की कोख
और झोंक दिया जाए भ्रूण आग में,
माँ की आँखों के सामने ।

हाँ ! हमें हराना होगा उन्हें भी
जो रचते हैं खलनायक
अपनी ज़रुरत के मुताबिक
और लड़ने को हथियार भी
उसी के ख़िलाफ़।
जो बेचने-खरीदने में माहिर हैं इतने
कि डर बेचते हैं
यहाँ भी - वहां भी |
और फिर डरे हुए देशों को पीटकर,
बाज़ार को अपनी मर्ज़ी हाँककर,
खुशी से चहकते हैं
यस वी कैन ! यस वी कैन !

बस अभी ही वक़्त है
सबको एक साथ ले,
ताक़त ले अपने साझे दर्द से,
दुनिया भर के दहशतगर्दों के साथ ही साथ
आइये कहते हैं उनके भी ख़िलाफ़
नो ! यू कान्ट !
नो ! यू कान्ट एनीमोर !

  - आशुतोष चन्दन