Sunday, July 28, 2019

राष्ट्र को ख़तरा हमारे प्रश्न से है !





राष्ट्र कभी नहीं मरता।
राष्ट्र की सीमाएं/ परिभाषाएं
जवान होती चलती हैं।
बचा रहता है गौरव-गान 
घृणित से घृणित समय में भी
वमन के बाद मुँह में बचे कसैले स्वाद सा।

जब राष्ट्र की सीमा पर सैनिक
ख़र्च किये जा रहे होते हैं 
उबटन की तरह
और निखरकर चमकने लगती हैं
सत्ता-लोलुप भेड़ियों की महत्वाकांक्षाएं,
राष्ट्र को तब ख़तरा नहीं होता।

जब राष्ट्र की सीमा के भीतर
ज़िबह हो रहे होते हैं
किसान, मज़दूर, आदिवासी, नौजवान,
और हम जैसे लोग
अपनी-अपनी ज़िंदगी की लंगोट बचाये
सवाल तक नहीं करते,
राष्ट्र तब ख़तरे में नहीं होता।

हाँ तब भी 
जब कश्मीर से लेकर बंगाल तक
मुम्बई से लेकर दिल्ली तक
विस्थापितों की भीड़
मारी-मारी फिरती है
अपना टीन-टप्पर उठाये
और उन्हें एक घर तक नसीब नहीं होता,
राष्ट्र बिल्कुल भी ख़तरे में नहीं होता
कि बाढ़, सूखा, बेरोज़गारी 
और आतंक से उपजा विस्थापन
नेताओं की संसदीय वासना-पूर्ति में
किसी शक्तिवर्धक कैप्सूल से ज़्यादा काम आता है।

चाहे किसी जानवर की छोड़ी गयी साँस से
पड़ रहे हों राष्ट्र के बदन पर फफोले,
धर्म की धौंकनी और इमारतें 
लीलती जा रही हों भाईचारा
इतिहास-बोध और इंसान तक,
जब जाति के नाबदान से 
बाहर आने की छटपटाहट पर 
पीटी जा रही हों तालियाँ अश्लीलता से,
तब भी ख़तरे से बाहर
निश्चिंत होता है राष्ट्र।

सत्ता और उसके प्रतिष्ठानों पर उठाए जा रहे प्रश्न
जब सीने पर गोलियां खा रहे हों
या कायर बंदूकें दाग रही हों गोलियां
साहसी प्रश्नों के पीठ पर 
और संगठित प्रश्नों को
सामूहिक रूप से घोषित किया जा रहा हो देशद्रोही,
राष्ट्र तब भी सुरक्षित ही तो होता है।

भले ही सीमांतों से लेकर राजधानी तक
नोंची जा रही हों राष्ट्र भर में स्त्रियां,
वृद्धाएं, किशोरियां
और बलात्कार के सामूहिक उत्सवों के दौर में
नवजात बच्चियों तक को 
मान लिया गया हो 
पुरुष-लिंग के अनुपात का एक मांस-पिंड !
ऐसे घृणित, वहशी, अमानुषिक समय में भी 
राष्ट्र ज़िन्दा रहता है,
शर्म से मरता नहीं।
और गौरव-गान उसका
अबाध जारी रहता है,
छद्म राष्ट्रभक्तों के समवेत 
घाघ मधुर स्वर में।

बिल्कुल !
हम सब परिवार वाले हैं !
अपने-अपने महान धर्म के 
अपनी-अपनी जात वाले हैं।
हमारी भी रोज़ी-रोटी है,
माता-पिता हैं,
बीवी है-बेटी है !
कैसे कह दें
कि हर अमानुषिक घटना में
थोड़ा-थोड़ा रोज़ ही मरता है राष्ट्र
और वो कुमकुम नहीं है,
जो कि भारत माता के 
भाल से बहता हुआ
कर रहा है देह सारी गेरुआ,
रक्त है !
बह रहा जो अनगिनत घावों से होकर।

कैसे कह दें, राष्ट्र के नासूर सारे
बन रहे मंत्री, मुहाफ़िज़ और महाजन,
वाइज़ औ पंडों की सारी टोलियां
कर रहीं गुणगान उनका ही निरंतर।
देखना भी जुर्म है उनकी तरफ़ अब
औ प्रश्न करना देशद्रोह की निशानी ! 

सो रक्तरंजित राष्ट्र को यूँ देखकर भी
आइये हम चुप रहें !
नेपथ्य में ख़ामोश बैठें !
या कि गाएं राष्ट्र-गीत, राष्ट्र-गान
अपनी लिजलिजी आवाज़ में,
और संग हो ध्वज-प्रणाम !

शेष सबकुछ है चकाचक
बस राष्ट्र को ख़तरा हमारे प्रश्न से है।

- आशुतोष चन्दन 
  

Sunday, May 26, 2019

आस्तीन


वक़्त की दरकार यही है
कि हम-आप अपनी आस्तीनें
काट कर फेंक दे!
इसलिए नहीं
कि किसी ने दिया है
आस्तीन धोने या इस्त्री करने में ज़्यादा समय लगने का तर्क!
न ही कपड़ा बचाने के लिए।

अगर आप अपनी आस्तीनें
झाड़ कर देख नहीं सकते,
अपनी लापरवाही या बेमन में
साँपों को, सपोलों को
बने रहने देते हैं वहीं
उनके अंडों-केंचुली समेत,
तो उसे काट कर फेंक दीजिए।
आप की आस्तीनें
आप के लिए ही नहीं,
दूसरों के लिए भी ख़तरनाक हो चली हैं।

वरना मोड़कर देखिये,
झाड़कर,
डुबोकर उबलते पानी में भी ।
क्या पता हमारी-आपकी आस्तीन में ही
उसकी सिलाई में,
महीन से महीन रेशे में
पल रहे हों वो साँप
जिन्हें मारने को हम आप लाठी भाँजते रहते हैं
बाहर।
धर्म और जाति के ज़हर भरे फन वाले
औरत को देह मान लपलपाती जीभ वाले,
पैसे के, रुतबे के,श्रेष्ठता के दंभ में
दूसरों को निगल-निगल बढ़ते-मुटाते जाते
चिकने सुनहले शातिर और घाघ साँप !

आशुतोष चन्दन
26 मई 2019

Sunday, April 28, 2019

तीसरी आँख थे एस. त्यागराजन



जब राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के किसी मंच पर कोई नाटक मंचित हो रहा होता, तो अभिनेता व प्रकाश/संगीत से संबद्ध कलाकारों और दर्शक के अलावा एक और आँख होती थी, जो मंचन को पूरी सजगता से देख रही होती थी। नंगी आँखों से नहीं, कैमरे की आँखों से। मंच पर घटित हो रहे नाटक के एक-एक फ्रेम, एक-एक बिम्ब को, रंग के मुख़्तलिफ़ शेड्स को, मंच-सज्जा के हर पैटर्न को, अभिनेता के हर भाव को, उसके शरीर की हर भंगिमा को देखते हुए उनमें से सुंदरतम को चुन लेने में महारत हासिल थी एस. त्यागराजन को।

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नयी दिल्ली में एकाउंटेंट की तरह दाख़िल होने से लेकर वर्ष 1980 में डार्क रूम असिस्टेंट, वर्ष 1988 में सीनियर फ़ोटोग्राफ़र होने और सेवानिवृत्त होने तक लगातार राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्रस्तुतियों को कैमरे की ज़ुबान में दर्ज करने की लंबी यात्रा के बाद आज 28 अप्रैल 2019 को एस. त्यागराजन इस दुनिया को अंतिम विदा कह गये। ‘मैंने तेईस साल तक नाटकों को सिर्फ़ व्यूफाइंडर से देखा है’ कहने वाले एस. त्यागराजन की नज़र से ब.व.कारंत, मोहन महर्षि, के.एन. पणिक्कर, रतन थियम, बंसी कौल, अनुराधा कपूर, त्रिपुरारी शर्मा, नीलम मानसिंह चौधरी सहित देश-विदेश के तमाम प्रसिद्ध निर्देशकों की कई महत्त्वपूर्ण प्रस्तुतियां गुज़री हैं।
(नीलम मानसिंह चौधरी निर्देशित नाट्य-प्रस्तुति 'नेकेड वायसेस' से)
                       
                   रंगमंच जैसी विधा को दर्ज़ करना अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण और उतना ही मुश्किल काम है। शाब्दिक वर्णन पाठक को बिम्ब तो देते हैं लेकिन मंचित नाटक का वर्णन पढ़ते हुए पाठक कई बार नाटक को अपनी भिन्न-भिन्न कल्पना शक्ति में वैसा नहीं देख पाता, जैसा नाटक दरअसल मंचित हुआ होगा। वीडियोग्राफ़ी नाट्य-प्रस्तुति को हूबहू दर्ज़ तो करती है, लेकिन उसकी एक अलग सीमा है। नाटक का वीडियो, देखने वाले को मंचन की जो नकल या प्रति दिखाता है, वह वीडियोफ़िल्म पर उतारी गयी प्रति होती है। अच्छी तकनीक के बावजूद दर्शक अमूमन उस अनुभूति से नहीं गुज़र पाता, जिस से वो सभागार में मंचित हो रहे नाटक को देखते हुए गुज़रता है। वो कौन सी चीज़ है जो ऐसा होने से रोकती है ? मेरी नज़र में वो चीज़ है, फ़ोकस और अंतराल। फ़ोकस और अंतराल के बीच की लय। सभागार में बैठकर नाटक देख रहे दर्शक की आँखें मंचित हो रहे नाटक को लगातार संपूर्णता में देखते हुए भी अलग-अलग फ्रेम्स में देख रही होती हैं,  एक क्षणिक अंतराल में। ये फ़ोकस की ख़ूबी मानवीय आँख की है। जैसे पेड़ की फुनगी के ऊपर खिले चाँद को देख रही हमारी-आपकी आँखें चाँद को भी देख रही होती हैं, पेड़ के एक बड़े हिस्से को भी और क्षण भर के अंतराल में पेड़ की फुनगी को भी। ये फ़ोकस की शिफ़्टिंग एक तरह का काव्यात्मक असर पैदा करती है। वीडियो में रिकॉर्ड किये गए नाटक में हम ऐन वही देख रहे होते हैं, जो कैमरा दिखाता है। न कम, न ज़्यादा। तस्वीरें, एक अलग भावभूमि रचती हैं। एक अच्छी तस्वीर एक ही समय पर एक निश्चित डिटेल्स वाली हो सकती है और बहुविध संभावनापूर्ण काव्यात्मक भी। किसी नाट्य-प्रस्तुति की अलग-अलग तस्वीरें देखते हुए हम उस प्रस्तुति के अलग-अलग फ़ोकस्ड फ्रेम को देख रहे होते हैं। उस फ्रेम की बारीक से बारीक डिटेल्स देखी जा रही होती हैं। साथ ही बहुत सी तस्वीरों के बीच के अंतराल को भी महसूस किया जा सकता है। यह अंतराल, जो न ली गयी तस्वीरों के कारण उपजता है, देखने वाले को कल्पना के लिए स्पेस देता है। एक ऐसी कल्पना जो शाब्दिक वर्णन से उपजने वाली कल्पना की बनिस्बत एक ज्यादा भरोसेमंद आधारभूमि रखती है। वीडियो देखते हुए जिसकी संभावना बहुत ही कम होती है। एक अच्छी तस्वीर मंचित नाटक के फ्रेम को उसकी अधिकतम डिटेल्स के साथ देखने वाले के सामने रखती है। यक़ीनन चलते नाटक के दौरान, बदलती प्रकाश योजना के बीच गतिमान दृश्यों में से दृश्य का एक महत्त्वपूर्ण टुकड़ा, एक सुंदर फ्रेम, एक सटीक तस्वीर उतार पाना अपने आप में एक चैतन्य साधना है। सजगता में एक चूक और वो क्षण, जो सबसे महत्त्वपूर्ण हो सकता था, एक संभावनापूर्ण तस्वीर बन सकता था, ओझल हो जाने का ख़तरा बना रहता है। एस. त्यागराजन को इस चैतन्य साधना में महारत हासिल थी। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के परिसर में लगी उनकी ली गयी तमाम तस्वीरें उनकी इस महारत की साक्षी हैं। मैं वर्ष 2006 से राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्रस्तुतियाँ देखता रहा हूँ। इस दौरान मैंने कभी भी चलते नाटक के बीच उन्हें तस्वीरें क़ैद करने के लिए सभागार में इधर-उधर भागते नहीं देखा। मैंने ही क्या, संभवतः किसी ने भी नहीं देखा होगा। तस्वीरें मानो उनके पास ख़ुद आती थीं दर्ज होने। व्यूफाइंडर के पीछे लगी एस. त्यागराजन की आँखों को पता होता था उनकी आमद का और वे आँखें हमेशा मुस्तैदी से तैयार रहती थीं।
              उन्होंने कभी भी अपने काम को महज़ काम की तरह नहीं लिया। अपनी कला को लेकर उनमें इतनी शिद्दत थी कि बारीक से बारीक बेहतर अन्तर की तलाश में वो एक ही नाटक अलग-अलग कई शो की तस्वीरें उतारते दिख जाते थे। एस. त्यागराजन कहा करते थे कि दर्शक जो इतने मन से नाटक देखने आए हैं, उन्हें तस्वीरों के लिए डिस्टर्ब नहीं करना चाहिए। यहाँ तक कि उन्हें मंच पर साइलेंस में घटित हो रहे दृश्यों के दौरान क्लिक तक करना पसंद न था और वे अमूमन ऐसा नहीं करते थे। हम-आप जो सहृदय दर्शक के तौर पर अपना मोबाइल साइलेंट या वाइब्रेशन मोड पर डालना भूल जाते हैं, न जाने कितनी ज़रूरी कॉल्स रिसीव कर चलते नाटक के दौरान ज़ोर-ज़ोर से फुसफुसा लेते हैं, हमें एस. त्यागराजन की इस नज़ीर से दर्शक होने का शऊर सीखने की ज़रूरत है।

                         एस त्यागराजन सर से मेरा व्यक्तिगत परिचय तब हुआ, जब मैं राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की “थियेटर इन एजुकेशन कम्पनी” (संस्कार रंग टोली) में शामिल हुआ। वर्ष 2014 में। उसके पहले भी उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के परिसर में हमेशा एक खिली हुई मुस्कान के साथ जब-तब देखता आया था। लेकिन क़रीब से मिलने, बोलने-बतियाने के बाद पाया कि त्यागराजन सर कितनी सकारात्मक ऊर्जा से लैस व्यक्ति थे। शायद व्यक्तिगत अतीत के निगेटिव्स से उन्होंने अपने लिये और दुनिया के लिए रंगीन तस्वीरें तैयार करने का बाकमाल हुनर सीख लिया था। उनसे नज़र मिलने भर की देरी होती कि उनका चेहरा बच्चों सी मुस्कान से खिल जाता और फिर उन्हें देखने वाले का भी। मानो उस माहिर फ़ोटोग्राफ़र ने अचानक कैमरा सामने कर कह दिया हो ― स्माइल !

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की प्रस्तुतियाँ  अपने प्यारे फ़ोटोग्राफ़र को याद करेंगी, विद्यालय परिसर में आने-जाने वाले लोग त्यागराजन सर की उतारी गयी तस्वीरों को, और मुझ जैसे तमाम लोग उस गर्मजोशी से भरी निश्छल मुस्कान को...उस अनकही “स्माइल!” की आवाज़ को।

अलविदा त्यागराजन सर।

                                    - आशुतोष चन्दन

Monday, March 11, 2019

एक शुरू होते नाटक के दौरान


विचार छत्तीस
दिमाग़ में
गुत्थमगुत्था एक दूसरे से।
एक का सिरा पकड़ो
तो साथ आ जाते हैं छः और !
जैसे जलकुम्भी की जड़ें
भीतर-भीतर फँसाये रखती हैं
एक दूसरे को
कि कोई अकेले न निकल जाये बाहर।
क्या ख़ाक नाटक लिखूँगा ?
एक दृश्य निकलता है मन के पार्श्व से
तो चार और करने लगते हैं धक्का-मुक्की,
कि मानो उन्हें भी बस उसी वक़्त
आना हो मंच पर।
एक को सम्हालता हूँ
तो दूसरे करने लगते हैं हल्ला-गुल्ला
कि हम भी तो सच्चाई हैं
इसी वक़्त की,
उतने ही मौज़ू,
हमें कब रखोगे केंद्र में?
हम जो बाहर भी हैं हाशिये पर,
क्या मंच पर भी रह जाएंगे
नेपथ्य में ही ?

कैसे लाऊं एक साथ भाई ?
हँसी-ठट्ठा हो
तो कोई कर भी ले
एक साथ बत्तीस,
पर दुःख, पीड़ा, कसक,
एक ही पड़ जाती है भारी
एक समय में,
अगर उतर सके गहरे
ऐन मंच पर।
ऊपर से शब्दों की,
शब्द-बिम्ब की
क़दर नहीं कुछ ख़ास है अब।
दृश्य चाहिए।
दृश्य भी ऐसे गति हो जिनमें।
काठ के पुतले अभिनेता की
अनियत, लयपूर्ण सी गतियाँ,
उपकरणों के संग प्रकाश की,
तस्वीरों, चलचित्र की गतियाँ।
इनके बीच कथा के सूत्र
कोई अगर बचा पाए तो
बात अलग है।
वरना सबकी कथा अलग है
लेखक, अभिनेता, निर्देशक की,
घंटे भर को सीट में अटके
फेसबुक के अपडेट्स देखते
सम्मानित सहृदय दर्शक की
व्यथा अलग है।

और यहाँ शब्दों की बारिश !
लहू सने दृश्यों की बारिश !
न सुनी गयी आवाज़ें
जो चीख़ रहीं जाने कबसे
गिरती हैं ओलों की तरह।
खेत, शहर, क़स्बों, गाँवों
जंगल, सरहद से उठती हूक,
जो संसद सुनती है नहीं,
उसे भला लोगों के बीच
सीधा-सीधा क्यों न रखूँ?
सौ अर्थों के लोभ में कैसे
उलझा दूँ उनकी ये कथा ?
माना सच के कई पहलू हैं
पर अपना पहलू भी तो हो?
अपनी तरफ़ से देखे सच को
ठोंक बजाकर परखे सच को
शब्दों-दृश्यों में गूँथ और गढ़कर
सबसे ज़रूरी अर्थ के संग
कह देना क्या कला नहीं है?

अगर नहीं तो माफ़ करो फिर
कलाकार होने का दावा
वैसे भी करता ही नहीं,
पर छान जलेबी रीढ़ की अपनी
उन सारे शब्द-अर्थ-दृश्यों को
और उनकी उस हूक को सारी
कलाकार होने की ललक में
कैसे गोली दे दूँ?

  • आशुतोष चन्दन




Monday, February 25, 2019

ग़ज़ल

कल हक़ीक़त में नज़र आएंगी मुझको रोटियाँ
आज फिर इक बार वो ये सोचकर सो जाएगा।

भगवान है, दिखता नहीं, हमने सुना बचपन से है
इंसान भी बस कुछ दिनों में गुमशुदा हो जाएगा।

सच की ख़ातिर मर मिटो हर धर्म है कहता मग़र
क्या ख़बर थी धर्म का मतलब जुदा हो जाएगा।

क़त्ल करना ही अगर मज़हब है सबके वास्ते
कल कोई क़ातिल यहाँ शायद ख़ुदा हो जाएगा।

क़त्ल कर दे तू मुझे भी गर यही है धरम तेरा
मेरे मज़हब का भी कुछ तो हक़ अदा हो जाएगा।

हम अगर हों साथ तो आएगा फिर से इंक़लाब
ज़र्रा ज़र्रा मुल्क़ का आतिशफ़िशां हो जाएगा।

हाथ दो और हाथ लो फिर दिल मिला कर देख लो
देखते ही देखते इक कारवाँ हो जाएगा।

वक़्त है अब भी सम्हल जा तू वगर्ना एक दिन
वक़्त के तूफ़ान में तन्हा कहीं खो जाएगा।

आशुतोष चन्दन

ग़ज़ल

चेहरा लोगों का यूँ सुर्ख़ और आतिशां क्यूँ है
इस शहर में हर इक मोड़  हादसा क्यूँ है।

न कहीं आग लगी न कोई भी घर है जला
फिर हवाओं में तपन और धुँआ सा क्यूँ है।

न कहीं भूख न दर्द सियासत के दस्तावेज़ों में
हर इक मज़लूम और इक ज़िंदा लाश सा क्यूँ है।

रहीम ओ राम पे मिटने और मिटाने वाला
हर इक वाइज़ ख़ुद में ही एक ख़ुदा सा क्यूँ है।

रंग ओ सूरत है जुदा, ओ रे ख़ुदा तू भी जुदा
रग़ों में दौड़ता लहू फिर एक सा क्यूँ है ।

आशुतोष चन्दन

ख़ुदा..आदमीयत ...और हम


ख़ुदा..आदमीयत ...और हम 

ये हिंदी ये उर्दू ये इंग्लिश के मेले
ज़ुबानों- अदीबों के लाखों झमेले
हैं ढूंढें नज़र अब ज़हनियत कहाँ है
है ढूँढे नज़र आदमीयत कहाँ है।

हैं जिनके भी पेट भरे ,जेबें ऊंची
उन्हें इंक़लाबों से मुश्किल तो होगी
डॉलर-दीनारों की बारिश है जिनपर
ऐशों-आरामों की ख्वाहिश है जिनको
उन्हें कुछ बदलने की चाहत क्यों होगी
दुआएं,सभाएं और प्रार्थनाएं
बहाने पुराने हैं उन वाइज़ों के                         
असल बात हैं उनमें हिम्मत कहाँ है
है ढूँढे नज़र आदमीयत कहाँ है।

ये मंदिर ये मस्ज़िद ये गुरुद्वारे गिरजे
नहीं है नहीं है ख़ुदा अब कहीं पे 
ख़ुदा ग़र जो होता ये आलम न होता
न होती ये नफ़रत, ये दंगे न होते
न होते कहीं चन्द दौलत के पुतले 
करोड़ों यहाँ भूखे नंगे न होते
ये तक़रीरें-प्रवचन,ये वाइज़ ये पण्डे
ये फ़तवे-ये भाषण, ये तलवार-ओ-नेज़ें
कहीं पर धरम की दुकानें न सजतीं
ये सिसकी, ये आँसू , ये चीखें न होतीं
न दंगों में लुटती कहीं  कोई अस्मत
अनाथों सी होकर ये माँएं न रोतीं।

लिखा है अगर ये ईश्वर की है मर्ज़ी
जला दो धरम  की वो सारी किताबें
ख़ुदा ग़र मोहब्बत का है नाम दूजा
तो उसकी नज़र ऐसी वहशी न होगी
अगर ढूँढना है तुम्हें कुछ कहीं भी
तो ख़ुद में तलाशो मोहब्बत है कितनी
कि तुममें बची आदमीयत है कितनी
ये मजलिस-सभाएं, ये रथ-यात्राएँ
ये पहचानो इन सब की नीयत में क्या है
कि इंसां को इनकी ज़रुरत कहाँ है ?

बस ख्वाबों-ख़यालों में सुन्दर है दुनिया
या बंगलों के अन्दर ही सुन्दर है दुनिया
बाहर तो दुनिया में है भूख पसरी
दहशत से दुनिया है सहमी  औ सिहरी 
है जिनकी भी  मुट्ठी में दौलत या ताक़त
उन्हीं के लिए ख़ूबसूरत है दुनिया।

ये सब जानते हैं, सो सब भागते हैं
सभी दौड़ में हैं, ये सब जानते है
ये सारी क़वायद है पाने की केवल
उस दौलत की दुनिया का छोटा सा कोना
उस ताक़त की दुनिया का छोटा सा कोना
वो दुनिया जो  मखमल मुलायम है दिखती
वो दुनिया जो चमके है रंग-बिरंगी
इस चमकीली मखमल की रंगत के पीछे
दबे हैं जहाँ  के गरीबों के आँसू
उनके लहू और पसीने की सुर्खी।

ये सब जानते हैं ये वाज़िब नहीं है
ये सब मानते हैं ये जायज़ नहीं है
ये सब कुछ बदल जाए
सब चाहते हैं
अमन ही अमन हो
ये सबकी है ख्वाहिश
मगर कुछ बदलने की
कुछ कर गुजरने की
फुर्सत कहाँ है ?
बहाने बनाने की आदत हुनर है
असल बात ये है ,अहम बात ये है
कि दुनिया बदलने की
कुछ कर गुजरने की
हिम्मत कहाँ है ?
है ढूँढे नज़र आदमीयत कहाँ है।

                      - आशुतोष चन्दन

रंग खिलते रहें



रंग खिलते रहें सबके जीवन में।
लाल बाम पर खिले,
हरा खेतों में
और पीला सरसों पे, फूलों में-कलियों में,
नीला आकाश और समन्दर में,
जहाँ पर भी सपनों की गुंजाइश हो, वहाँ खिले।
पूरी दुनिया में बच्चे बढ़ते रहें
भर के सातों रंग अपनी फिरकियों, गुब्बारों और लट्टुओं में,
कि स्कूलों के सारे व्हॉइट और ब्लैक बोर्ड पर
खिल जाए सतरंगी इंद्रधनुष,
कि बच्चे
सीखने और रचने की देहरी पार कर
पहुँच सकें ज्ञान तक,
संवेदना के वितान तक,
कि दुनिया को उनकी बहुत-बहुत ज़रूरत है।

सफेद, चाँदनी के संग-संग बचा रहे
दुधमुँहे बच्चों के दूध के दाँत में,
सारी दुनिया के बच्चों के दूध-भात में,
कि कहीं कोई बच्चा भूख से न मरे।

दोस्ती में, प्रेम में, हर इंसानी रिश्ते में
बचे रहें दुनिया के सारे रंग
और बचा रहे पानी
सबकी ही आँख का
कि जब-तब सारे रंग थोड़ा-थोड़ा घोल के
कर दें खुशरंग अपने आस-पास दुनिया को,
पहले से सुंदर थोड़ा
थोड़ा और बेहतर।

  • आशुतोष चन्दन
    2 मार्च 2018 (होली)





'क से भय' - सत्ता का अपना व्याकरण

सच कहने के अपने ख़तरे होते हैं। सुकरात, गैलीलियो से लेकर  ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले दुनिया भर के गुमनाम से पत्रकारों, मानवाधिकार संगठन के लोगों, विद्यार्थियों आदि ने हर समय में सच बोलने की क़ीमत चुकाई है, अपनी जान देकर भी। चीजों को जानने-समझने, अपनी पक्षधरता तय करने और उसके लिए सब कुछ झोंक देने के हौसले के बीच का दौर कितना यंत्रणादायी और भयावह होता है, सब कुछ जानते-बूझते कुछ न कर पाने की कशमकश और तड़प किस हद से गुज़रती है….नाटक ‘क से भय’ इन सब को ठीक-ठीक सामने लाता है। इस नाटक को तैयार किया दिल्ली विश्वविद्यालय के मैत्रैयी कॉलेज की थियेटर सोसायटी ‘अभिव्यक्ति’ की युवा और बहादुर छात्राओं ने। निर्देशन चैताली पंत  और उर्जिता भारद्वाज का था और इस पूरी प्रक्रिया को मार्गदर्शन मिला था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्नातक स्वीटी रुहेल का। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के कन्वेंशन सेंटर में प्रस्तुत किया गया ये नाटक बरसों से बनाये जा रहे और आज के दौर में उभर कर आये भाषा और व्यवहार के हिंसक, स्त्रीद्वेषी, दलित-अल्पसंख्यक-विरोधी या यूँ कहें अपने मूलरूप में मानवद्रोही व्याकरण के चरित्र को अपना मूल कथ्य बनाता है। वह व्याकरण जो मुट्ठी भर सत्ता और प्रभुत्वसंपन्न लोगों द्वारा बहुसंख्यक आबादी पर जबरन थोपा जा रहा है। व्याकरण, जहाँ ‘क’ से किताब नहीं, ‘क से भय’ होता है। व्याकरण पितृसत्ता का, जो तय करता है स्त्रियों की भाषा-जीवन-व्यवहार के पैमाने। एक स्त्री क्या बोले, कितना बोले, क्या पहने, किसके सामने पहने, कहाँ कैसे जिये...सब उसी व्याकरण के हिसाब से, जिसके बनने में स्त्री का कोई सार्थक हस्तक्षेप नहीं। स्त्रियों को पुरुषों से कमतर मानने वाला  व्याकरण, जिसमें सवाल उठाने वाली स्त्रियों का कोई स्थान नहीं, बल्कि  वे स्वाभाविक रूप चरित्रहीन और अपराधी मानी जाती रही हैं। व्याकरण व्यवहार का, जो दुनिया भर के लिए निहायत ही ज़रूरी चीज़ों को गैरज़रूरी मानता है। जो मानता है कि सत्तापक्ष की दलाली ही व्यवहार का सर्वोच्च मानक है और जो इस मानक पर खरे नहीं उतरते, इस मानक को चुनौती देते हैं, वे समय की हवा के हिसाब से राष्ट्रद्रोही हैं, संस्कृति के लिए ख़तरा हैं, आतंकवादी हैं ! ऐसे समय में जब देश के तमाम मीडिया घरानों द्वारा सत्ता की दुम सहलाने की, फ़ायदे के लिए पत्रकारिता के सिद्धान्तों की दलाली करते हुए सत्ता के सामने झुक जाने की ख़बरें नाउम्मीदी का अंधेरा पैदा कर रही हैं, ‘क से भय’ जैसे नाटक ऐसी ही घातक दलालियों का चरित्र दर्शकों के सामने लाते हुए प्रतिरोध की रोशनी को और मज़बूत, और धारदार बनाते हैं। कॉलेज और विश्वविद्यालय के कैम्पसों में जहाँ देश के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग परिवेश और अनुभव को लिए युवा एक बेहतर कॅरियर का सपना लिए आते हैं, वहाँ ऐसे नाटकों  का लगातार होते रहना बहुत ज़रूरी है ताकि उन्हें इस बात का लगातार एहसास रहे कि उनके अपने सपने के बरक्स एक बहुत बड़ा सपना है, पिछली सदियों से चला आ रहा ….कि आने वाली पीढ़ी इस दुनिया को हमसे बेहतर सम्हालेगी, इसे और बेहतर बनाएगी। ये बहुत ज़रूरी है कि हम सब अपने-अपने सपनों में एक बेहतर दुनिया के सपनों को जगह दें। एक ऐसी दुनिया जहाँ ‘क से भय’ का व्याकरण बनने ही न पाए।


अभी भी वक़्त है

अभी भी वक़्त है

अभी भी वक़्त है,
आइये बोलें-बतियाएं
अपनी चौहद्दी के बाहर की दुनिया से
मेल-जोल बढ़ाएं,
थोड़ा मिलावटी हो जाएं।
अपने शुद्ध रक्त में मिल जाने दें
अलग-अलग संस्कृतियों के ख़ूबसूरत रंग...
कि हवा जो आपकी साँस में उतरती है,
ज़रूरी नहीं
कि किसी आपके के ही जात-धर्म-राज्य
या देश वाले की छोड़ी हुई साँस हो,
जिसे पेड़ों ने बदल दिया हो ऑक्सीजन में।
हो सकता है
जिसे आप मानते हों अस्पृश्य,
अछूत,
काफ़िर
या फिर देशद्रोही,
उसी की थकान से बोझिल
कल छोड़ी हुई साँस,
आज आपके नथुनों में घुसी हो
जिसके बल पर आप ख़ुद को
ज़िंदा पा रहे हैं।

मिट्टी,
जो आपके पैरों के नीचे है,
सिर्फ वही नहीं है मिट्टी ।
अफ्रीका के जंगलों में
कोको इकट्टठा करते,
बीमार पड़ते
और मर जाते बच्चों के पैरों के नीचे भी
यही मिट्टी धसकती है।
मगर मज़ाल है
कि हमारे-आपके मुँह में घुलती चॉकलेट में
स्वाद आ जाये उस मिट्टी का !

सम्मान करें !
सम्मान करें उनका भी
जो नहीं हैं आपकी नाप ली गयी ज़मीन के अंदर।
फलिस्तीन, सीरिया, इराक़, बगदाद, ढाका,
पेशावर, मुज़फ्फरनगर, गुजरात, अयोध्या,
अमृतसर, रावलपिंडी, लाहौर
और जर्मनी, कोरिया, वियतनाम, सोमालिया
और हाँ अमेरिका भी...
जहाँ भी बहता है ख़ून बेगुनाहों का,
गलत है !
कतई बर्दाश्त के क़ाबिल नहीं !

माफ़ी नहीं !
बिलकुल भी माफी नहीं।
हमें उनके मंसूबों को मात देनी ही होगी,
जो चाहते हैं कि मोहम्मद के नाम पर
उतार ली जाए किसी की गर्दन,
टांग ली जाए नेज़े पर
या कि राम के नाम पर चीर दी जाए
किसी की कोख
और झोंक दिया जाए भ्रूण आग में,
माँ की आँखों के सामने ।

हाँ ! हमें हराना होगा उन्हें भी
जो रचते हैं खलनायक
अपनी ज़रुरत के मुताबिक
और लड़ने को हथियार भी
उसी के ख़िलाफ़।
जो बेचने-खरीदने में माहिर हैं इतने
कि डर बेचते हैं
यहाँ भी - वहां भी |
और फिर डरे हुए देशों को पीटकर,
बाज़ार को अपनी मर्ज़ी हाँककर,
खुशी से चहकते हैं
यस वी कैन ! यस वी कैन !

बस अभी ही वक़्त है
सबको एक साथ ले,
ताक़त ले अपने साझे दर्द से,
दुनिया भर के दहशतगर्दों के साथ ही साथ
आइये कहते हैं उनके भी ख़िलाफ़
नो ! यू कान्ट !
नो ! यू कान्ट एनीमोर !

  - आशुतोष चन्दन