Monday, February 25, 2019

अभी भी वक़्त है

अभी भी वक़्त है

अभी भी वक़्त है,
आइये बोलें-बतियाएं
अपनी चौहद्दी के बाहर की दुनिया से
मेल-जोल बढ़ाएं,
थोड़ा मिलावटी हो जाएं।
अपने शुद्ध रक्त में मिल जाने दें
अलग-अलग संस्कृतियों के ख़ूबसूरत रंग...
कि हवा जो आपकी साँस में उतरती है,
ज़रूरी नहीं
कि किसी आपके के ही जात-धर्म-राज्य
या देश वाले की छोड़ी हुई साँस हो,
जिसे पेड़ों ने बदल दिया हो ऑक्सीजन में।
हो सकता है
जिसे आप मानते हों अस्पृश्य,
अछूत,
काफ़िर
या फिर देशद्रोही,
उसी की थकान से बोझिल
कल छोड़ी हुई साँस,
आज आपके नथुनों में घुसी हो
जिसके बल पर आप ख़ुद को
ज़िंदा पा रहे हैं।

मिट्टी,
जो आपके पैरों के नीचे है,
सिर्फ वही नहीं है मिट्टी ।
अफ्रीका के जंगलों में
कोको इकट्टठा करते,
बीमार पड़ते
और मर जाते बच्चों के पैरों के नीचे भी
यही मिट्टी धसकती है।
मगर मज़ाल है
कि हमारे-आपके मुँह में घुलती चॉकलेट में
स्वाद आ जाये उस मिट्टी का !

सम्मान करें !
सम्मान करें उनका भी
जो नहीं हैं आपकी नाप ली गयी ज़मीन के अंदर।
फलिस्तीन, सीरिया, इराक़, बगदाद, ढाका,
पेशावर, मुज़फ्फरनगर, गुजरात, अयोध्या,
अमृतसर, रावलपिंडी, लाहौर
और जर्मनी, कोरिया, वियतनाम, सोमालिया
और हाँ अमेरिका भी...
जहाँ भी बहता है ख़ून बेगुनाहों का,
गलत है !
कतई बर्दाश्त के क़ाबिल नहीं !

माफ़ी नहीं !
बिलकुल भी माफी नहीं।
हमें उनके मंसूबों को मात देनी ही होगी,
जो चाहते हैं कि मोहम्मद के नाम पर
उतार ली जाए किसी की गर्दन,
टांग ली जाए नेज़े पर
या कि राम के नाम पर चीर दी जाए
किसी की कोख
और झोंक दिया जाए भ्रूण आग में,
माँ की आँखों के सामने ।

हाँ ! हमें हराना होगा उन्हें भी
जो रचते हैं खलनायक
अपनी ज़रुरत के मुताबिक
और लड़ने को हथियार भी
उसी के ख़िलाफ़।
जो बेचने-खरीदने में माहिर हैं इतने
कि डर बेचते हैं
यहाँ भी - वहां भी |
और फिर डरे हुए देशों को पीटकर,
बाज़ार को अपनी मर्ज़ी हाँककर,
खुशी से चहकते हैं
यस वी कैन ! यस वी कैन !

बस अभी ही वक़्त है
सबको एक साथ ले,
ताक़त ले अपने साझे दर्द से,
दुनिया भर के दहशतगर्दों के साथ ही साथ
आइये कहते हैं उनके भी ख़िलाफ़
नो ! यू कान्ट !
नो ! यू कान्ट एनीमोर !

  - आशुतोष चन्दन

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