Monday, February 25, 2019

'क से भय' - सत्ता का अपना व्याकरण

सच कहने के अपने ख़तरे होते हैं। सुकरात, गैलीलियो से लेकर  ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले दुनिया भर के गुमनाम से पत्रकारों, मानवाधिकार संगठन के लोगों, विद्यार्थियों आदि ने हर समय में सच बोलने की क़ीमत चुकाई है, अपनी जान देकर भी। चीजों को जानने-समझने, अपनी पक्षधरता तय करने और उसके लिए सब कुछ झोंक देने के हौसले के बीच का दौर कितना यंत्रणादायी और भयावह होता है, सब कुछ जानते-बूझते कुछ न कर पाने की कशमकश और तड़प किस हद से गुज़रती है….नाटक ‘क से भय’ इन सब को ठीक-ठीक सामने लाता है। इस नाटक को तैयार किया दिल्ली विश्वविद्यालय के मैत्रैयी कॉलेज की थियेटर सोसायटी ‘अभिव्यक्ति’ की युवा और बहादुर छात्राओं ने। निर्देशन चैताली पंत  और उर्जिता भारद्वाज का था और इस पूरी प्रक्रिया को मार्गदर्शन मिला था राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की स्नातक स्वीटी रुहेल का। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के कन्वेंशन सेंटर में प्रस्तुत किया गया ये नाटक बरसों से बनाये जा रहे और आज के दौर में उभर कर आये भाषा और व्यवहार के हिंसक, स्त्रीद्वेषी, दलित-अल्पसंख्यक-विरोधी या यूँ कहें अपने मूलरूप में मानवद्रोही व्याकरण के चरित्र को अपना मूल कथ्य बनाता है। वह व्याकरण जो मुट्ठी भर सत्ता और प्रभुत्वसंपन्न लोगों द्वारा बहुसंख्यक आबादी पर जबरन थोपा जा रहा है। व्याकरण, जहाँ ‘क’ से किताब नहीं, ‘क से भय’ होता है। व्याकरण पितृसत्ता का, जो तय करता है स्त्रियों की भाषा-जीवन-व्यवहार के पैमाने। एक स्त्री क्या बोले, कितना बोले, क्या पहने, किसके सामने पहने, कहाँ कैसे जिये...सब उसी व्याकरण के हिसाब से, जिसके बनने में स्त्री का कोई सार्थक हस्तक्षेप नहीं। स्त्रियों को पुरुषों से कमतर मानने वाला  व्याकरण, जिसमें सवाल उठाने वाली स्त्रियों का कोई स्थान नहीं, बल्कि  वे स्वाभाविक रूप चरित्रहीन और अपराधी मानी जाती रही हैं। व्याकरण व्यवहार का, जो दुनिया भर के लिए निहायत ही ज़रूरी चीज़ों को गैरज़रूरी मानता है। जो मानता है कि सत्तापक्ष की दलाली ही व्यवहार का सर्वोच्च मानक है और जो इस मानक पर खरे नहीं उतरते, इस मानक को चुनौती देते हैं, वे समय की हवा के हिसाब से राष्ट्रद्रोही हैं, संस्कृति के लिए ख़तरा हैं, आतंकवादी हैं ! ऐसे समय में जब देश के तमाम मीडिया घरानों द्वारा सत्ता की दुम सहलाने की, फ़ायदे के लिए पत्रकारिता के सिद्धान्तों की दलाली करते हुए सत्ता के सामने झुक जाने की ख़बरें नाउम्मीदी का अंधेरा पैदा कर रही हैं, ‘क से भय’ जैसे नाटक ऐसी ही घातक दलालियों का चरित्र दर्शकों के सामने लाते हुए प्रतिरोध की रोशनी को और मज़बूत, और धारदार बनाते हैं। कॉलेज और विश्वविद्यालय के कैम्पसों में जहाँ देश के अलग-अलग हिस्सों से अलग-अलग परिवेश और अनुभव को लिए युवा एक बेहतर कॅरियर का सपना लिए आते हैं, वहाँ ऐसे नाटकों  का लगातार होते रहना बहुत ज़रूरी है ताकि उन्हें इस बात का लगातार एहसास रहे कि उनके अपने सपने के बरक्स एक बहुत बड़ा सपना है, पिछली सदियों से चला आ रहा ….कि आने वाली पीढ़ी इस दुनिया को हमसे बेहतर सम्हालेगी, इसे और बेहतर बनाएगी। ये बहुत ज़रूरी है कि हम सब अपने-अपने सपनों में एक बेहतर दुनिया के सपनों को जगह दें। एक ऐसी दुनिया जहाँ ‘क से भय’ का व्याकरण बनने ही न पाए।


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