चेहरा लोगों का यूँ सुर्ख़ और आतिशां क्यूँ है
इस शहर में हर इक मोड़ हादसा क्यूँ है।
न कहीं आग लगी न कोई भी घर है जला
फिर हवाओं में तपन और धुँआ सा क्यूँ है।
न कहीं भूख न दर्द सियासत के दस्तावेज़ों में
हर इक मज़लूम और इक ज़िंदा लाश सा क्यूँ है।
रहीम ओ राम पे मिटने और मिटाने वाला
हर इक वाइज़ ख़ुद में ही एक ख़ुदा सा क्यूँ है।
रंग ओ सूरत है जुदा, ओ रे ख़ुदा तू भी जुदा
रग़ों में दौड़ता लहू फिर एक सा क्यूँ है ।
आशुतोष चन्दन
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